EPaper LogIn
एक बार क्लिक कर पोर्टल को Subscribe करें खबर पढ़े या अपलोड करें हर खबर पर इनकम पाये।

विचारधारा से हीन होती राजनीति
  • 151000003 - VAISHNAVI DWIVEDI 0 0
    26 Sep 2025 08:15 AM



 

  • बिहार में नेताओं का पाला बदलना जारी
  • कलाकार भी चुनाव लड़ने की तैयारी में
  • राजनीति में विचारधारा का अभाव

बिहार के राजनीतिक दल इन दिनों सीटों के बंटवारे के साथ ही इसलिए भी खबरों में हैं कि उनके नेता धड़ाधड़ पाला बदल रहे हैं। फिलहाल उनकी गिनती करना इसलिए कठिन है, क्योंकि हर दिन किसी न किसी दल का नेता अपने दल का त्याग कर रहा है। इन दल त्यागी नेताओं में विधायक, पूर्व विधायक एवं पूर्व सांसदों के अलावा अन्य पदाधिकारी भी हैं। कुछ ने दूसरे दलों का दामन लिया है। कुछ थामने की तैयारी में हैं।

 

पालाबदल के इस दौर में कुछ ऐसे नेता भी हैं, जो इसलिए दलबदल रहे हैं, क्योंकि वे अपने बेटे-बेटियों को चुनाव मैदान में उतारना चाहते हैं। जो नेता अपने-अपने दल का परित्याग कर रहे हैं, वे यह भी कह दे रहे हैं कि उनकी पार्टी अब वैसी नहीं रही। वह अमुक जाति-बिरादरी की विरोधी बन गई है और उसके नेता चाटुकारों से घिर गए हैं। चूंकि कोई भी उनसे नहीं पूछता कि उन्हें यह सब कब याद आया, इसलिए वे बताते भी नहीं।

 

बिहार में मौकपरस्त और दलबदलू नेताओं के साथ कुछ गायक-अभिनेता भी चर्चा में हैं, क्योंकि वे चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं। इनमें से एक हैं पवन सिंह और दूसरी हैं मैथिली ठाकुर। पिछले दिनों पवन सिंह गृहमंत्री अमित शाह से मिले। भाजपा ने उन्हें लोकसभा चुनाव में बंगाल से चुनावी मैदान में उतारा था। वे आसनसोल से चुनाव लड़ने की तैयारी कर ही रहे थे कि उनके कुछ अश्लील गानों का उल्लेख कर तृणमूल कांग्रेस ने उन पर हल्ला बोल दिया।

 

नतीजा यह हुआ कि भाजपा हिचक गई और खुद पवन सिंह ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। इसी के साथ उनकी भाजपा से निष्ठा उड़नछू हो गई और वे बिहार के कराकाट से निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़े। वे खुद तो चुनाव हारे ही, उन्होंने काराकाट समेत अन्य लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा प्रत्याशियों की लुटिया डुबोई। विधानसभा चुनाव आते ही उनका भाजपा प्रेम फिर से उमड़ा।

 

उन्होंने जब गृहमंत्री से मुलाकात की तो कहा गया कि उनकी घर वापसी हो गई है। इस पर उनका कहना था कि वे भाजपा से अलग ही कब हुए थे? इसके बाद जब उनकी पत्नी ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया तो खबर आई कि उन्होंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है। ऐसा कहते हुए उन्होंने यह भी कहा कि वे भाजपा के सच्चे सिपाही हैं। क्या इस पर यकीन किया जा सकता है?

 

लोक गायिका मैथिली ठाकुर को दरभंगा के अलीनगर से भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतारने की चर्चा है। इसका असर यह हुआ है कि अलीनगर के भाजपा विधायक ने पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी। पवन सिंह या मैथिली ठाकुर जैसे कलाकारों या फिर वर्तमान या निवर्तमान नौकरशाहों के चुनाव लड़ने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन जब वे यकायक चुनाव मैदान में उतर आते हैं, तो जिस भी दल के प्रत्याशी बनते हैं, उसके संभावित प्रत्याशी बन सकने वाले नेताओं की आशाओं पर तुषारापात करते हैं।

 

अक्सर ऐसे नेता या तो विद्रोही हो जाते हैं या फिर भितरघात करते हैं अथवा निष्क्रिय हो जाते हैं। इसके अलावा पार्टी कार्यकर्ताओं का वह वर्ग हताश होता है, जो नेता बनने और अंततः चुनाव लड़ने के सपने देख रहा होता है। ऐसे कार्यकर्ताओं के सपने तोड़ने का काम सभी दल समान भाव से करते हैं। वे यकायक कहीं से भी किसी को भी चुनाव मैदान में उतारने के अपने फैसले के पक्ष में यह तर्क देते हैं कि जिताऊ उम्मीदवारों पर दांव लगाना पड़ता है।

 

यह तर्क खोखला ही अधिक होता है, क्योंकि अक्सर दलबदलू या फिर नेता पुत्र अथवा राजनीति से इतर क्षेत्र के अचानक प्रत्याशी बने लोग चुनाव हार जाते हैं। यह तर्क दलों के उन कथित आंतरिक सर्वेक्षणों की भी पोल खोलता है, जिसके तहत यह बताने की कोशिश की जाती है कि क्षेत्र के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की राय के आधार पर टिकट देने का फैसला किया गया।

 

आखिर मतदाता या फिर कार्यकर्ता ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारने के पक्ष में अपनी राय कैसे दे सकते हैं, जिनका उन्होंने संभावित प्रत्याशी के रूप में नाम ही नहीं सुना होता? यह स्थिति इसलिए निर्मित हो रही है, क्योंकि आज की राजनीति में विचारधारा के लिए स्थान न्यून होता जा रहा है और पार्टी निष्ठा का कोई विशेष मूल्य-महत्व नहीं रह गया है।

 

पिछले लोकसभा चुनाव में दिखा था कि भाजपा या कांग्रेस को पानी पी-पीकर कोसने या फिर उनकी विचारधारा से कोई साम्य न रखने वाले नेता किस तरह उनके प्रत्याशी बन गए थे। विचारधारा अब वह तेल है, जिसमें मनचाहा अचार डाला जा सकता है। इसका दुष्परिणाम केवल यह नहीं है कि राजनीति विचारधाराविहीन होती जा रही है, बल्कि यह भी है कि उसमें नैतिकता और निष्ठा के लिए स्थान कम से कम होता जा रहा है। इसके लिए राजनीतिक दल अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकते।

 

एक समय भाजपा चाल, चरित्र और चेहरे की बात करती थी और खुद को औरों से अलग बताती थी। अब वह ऐसा नहीं कहती। वैसे भाजपा अब भी कम्युनिस्ट दलों की तरह विचारधारा वाला दल है, लेकिन कांग्रेस की विचारधारा तो खुद कांग्रेसी भी नहीं बता सकते। आम आदमी पार्टी जैसे अनेक दल ऐसे हैं, जिनकी कोई विचारधारा ही नहीं। वे इस एकमात्र विचार पर टिके हैं कि कैसे भी चुनाव जीतना है। हैरानी नहीं कि आम लोगों में राजनीति के प्रति अरुचि पैदा हो रही है। क्या अरुचि पैदा करती राजनीति से देश का भला हो सकता है? नहीं।

विचार: विचारधारा से हीन होती राजनीति, किसी को भी प्रत्याशी बनाने वाले राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं से करते हैं अन्याय

 



Subscriber

188057

No. of Visitors

FastMail