फ़ास्ट न्यूज़ इंडिया यूपी हरदोई उत्तर प्रदेश की राजनीति इन दिनों एक बार फिर "नाम बदलो अभियान" की चादर ओढ़े हुए है। इलाहाबाद प्रयागराज हुआ, फैज़ाबाद अयोध्या बना, मुगलसराय स्टेशन को नया नाम मिला और अब बारी हरदोई की है। योगी सरकार चाहती है कि अब यह ज़िला प्रह्लाद नगरी कहलाए। कहा जा रहा है कि पौराणिक मान्यताओं में यह भूमि भक्त प्रह्लाद की तपोभूमि रही है, इसलिए इसका नाम भी भक्तिमय हो जाना चाहिए। सरकार की मंशा है कि इससे धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा और सांस्कृतिक पहचान को पुनर्जीवन मिलेगा। लेकिन जो जनता आज भी सड़क, सफाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए संघर्ष कर रही है, उसके लिए यह नाम बदलाव कितना सार्थक है? सवाल यह है कि क्या केवल नाम बदल देने से जिले की दशा भी बदल जाएगी? अगर प्रह्लाद नगरी बनते ही सरकारी स्कूलों में मास्टर समय पर आने लगेंगे, तो नाम बदलने का स्वागत है। अगर सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर मौजूद रहेंगे, अगर मज़दूरों को मज़दूरी और किसानों को बकाया वक्त पर मिलेगा, तो इसे हरदोई क्या, हर दिन नया नाम दे दो। लेकिन जब ज़मीनी हालात जस के तस हैं, तो नाम बदलना महज छलावा नहीं तो और क्या है? हरदोई कोई आम ज़िला नहीं है। यह साहित्य, संघर्ष और सरोकार की ज़मीन है। यह हर उस आम आदमी का प्रतीक है जो रोज़ ज़िंदगी से लड़ता है और फिर भी उम्मीद का दीप जलाए रखता है। इस शहर की अपनी आत्मा है, अपना अतीत है, और एक नाम — जिसे न किसी घोषणा की ज़रूरत थी, न किसी अधिसूचना की। आखिर ये फैसला किससे पूछकर लिया गया? क्या किसी पंचायत, जनप्रतिनिधि, नागरिक संगठन या आम जनता से राय ली गई? क्या यह नामकरण जनभावना का हिस्सा है या फिर सिर्फ सत्ता का एक और भाषणीय प्रयोग? लोकतंत्र में फैसला ‘जनता’ से होता है, ‘जनता पर’ नहीं। नाम बदलना आसान होता है, क्योंकि इसमें न तो बजट लगता है, न जवाबदेही। एक प्रेस नोट निकलता है, कुछ बोर्ड बदलते हैं, और अखबारों में सुर्खियाँ बन जाती हैं। लेकिन नतीजे? वही बेरोज़गारी, वही टूटी सड़कें, वही अधूरी योजनाएँ — जो हरदोई की असल पहचान बन चुकी हैं। हरदोई अगर सच में प्रह्लाद नगरी है,तो उसे हिरण्यकश्यप भी ज़रूर मिले होंगे।आज सवाल यह है किवो हिरण्यकश्यप कौन है और नारायण कब प्रकट होंगे? जनता को न तो नामों से फर्क पड़ता है, न नारों से। उसे चाहिए रोटी, रोज़गार और न्याय — जो अब भी हर नारे, हर नाम और हर नक़्शे से गायब है। अगर हरदोई का नाम प्रह्लाद नगरी हो भी गया, तो क्या अगली सरकार फिर से इसका नाम बदल देगी? और तब क्या हम फिर वही सवाल नहीं पूछेंगे — नाम बदलने से क्या वाकई कुछ बदलता है? और जब सवाल इतना बड़ा हो, तो जवाब दबकर नहीं, डंके की चोट पर आना चाहिए —इसलिए यह लेख किसी छद्म नाम से नहीं, खुद को ज़िंदा रखने वाले नाम से है...मैं हूँ — सी वी आज़ाद।और जब तक सवाल जिंदा हैं, मेरी कलम भी जिंदा रहेगी। शिवांशु सिंह 151125593
