काशी के प्रख्यात अग्निहोत्री वैदिक देवेन्द्र चतुर्वेदी जी महाराज ने बताया ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता क्या होता है मनुष्य ज्ञान किस प्रकार प्राप्त करता है? इस प्रश्न पर दार्शनिकों ने पर्याप्त विचार किया है। कुछ पाश्चात्य विचारकों के अनुसार मनुष्य स्वयमेव ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए उसे किसी सहायक की आवश्यकता नहीं होती। इन्हीं विचारकों में से कुछ ज्ञान की प्राप्ति अनुभववाद (Empiricism) के द्वारा मानते हैं। लॉक के मन्तव्यानुसार मनुष्य का मस्तिष्क एक कोरे कागज के समान है तथा ज्ञान की प्राप्ति के साधन संवेदना (Sensation) तथा चिन्तन (Reflection) हैं। बर्कले और ह्यूम ने भी इसी मत का प्रतिपादन किया है। यदि मन को कोरे कागज के समान मान लिया जाए तो वह निष्क्रिय बन जाता है। ऐसा मानना मनोवैज्ञानिक भूल होगी क्योंकि मन गतिशील है तथा इसमें प्रत्येक क्षण कोई-न-कोई विचार आता रहता है। डैकार्ट, स्पिनोज़ा तथा लाइबनिज ज्ञान की उत्पत्ति बुद्धिवाद के द्वारा मानते हैं परन्तु एल्डस हक्सले का यह विचार भी ठीक ही है कि “बुद्धिवाद जीवन की गुत्थियों को सुलझाने का अपने आप में एक पूर्ण माध्यम नहीं है।”1 जर्मन दार्शनिक कान्ट के विचार में भी सदाचार सम्बन्धी ज्ञान की प्राप्ति अकेले अनुभव या बुद्धि से सम्भव न हो पाती।
ये मत केवल कुछ अंश तक ही सत्य हैं। यदि आरम्भ में कोई सिखाने वाला न हो तो मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर ही नहीं सकता। इस विचार की पुष्टि में कुछ उदाहरण लीजिए :
आज मानव इतना ज्ञान प्राप्त कर चुका है कि उसने चन्द्रमा पर जाने की साध पूरी कर ली है परन्तु अभी भी अन्डमान द्वीप समूह में निगरेटा वर्ग के कुछ लोग रहते हैं, जिन्हें अच्छी तरह गिनना भी नहीं आता। वहाँ भी भू-खनन पर भाले आदि लोहे के अस्त्र-शस्त्र मिले हैं। अतः वे लोग सदा से अज्ञानी नहीं हैं। कभी वे भी सभ्य थे। आज उनकी यह दशा शिक्षक के अभाव में हो गई है। ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका (वेदोत्पत्ति विषय:) में ठीक ही लिखा है- “सृष्टि के आदि में भी परमात्मा जो वेदों का उपदेश नहीं करता, तो आज पर्यन्त किसी मनुष्य को धर्मादि पदार्थों की यथार्थ-विद्या नहीं होती।‘
अनेक भाषाओं के ज्ञाता माता-पिता की सन्तान भी बिना सिखाए कोई भाषा नहीं सीख सकती। अतः बच्चों को ज्ञान देने के लिए पाठशालाओं का खोला जाना इस बात का प्रबल प्रमाण है कि शिक्षक के बिना अकेले अनुभव अथवा बुद्धि के द्वारा ज्ञान-प्राप्ति नहीं हो सकती।
आज तक किसी अनपढ़ व्यक्ति ने कोई वैज्ञानिक खोज नहीं की क्योंकि बिना शिक्षक के ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है।
ए. डब्ल्यू. किंगलेक जब मिस्र के महामरुस्थल में से निकल रहे थे तो उन्हें एक शेख मिले जिसे विज्ञान के इस युग में भी यह ज्ञात नहीं था कि समय का विभाजन घण्टों, मिनटों तथा सैकिण्डों में हो चुका है क्योंकि किसी ने उसे ये बातें बताई नहीं थीं।
बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में जिला अम्बाला में सम्मू नाम के एक बच्चे ने जन्म लिया। उसे स्कूल में उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया। अभी उसने उर्दू वर्णमाला (जो उसे बाद में भी याद थी) ही सीखी थी कि उसे लेखक के पैतृक गाँव तंगौर (कुरुक्षेत्र) का एक व्यक्ति नौकर के रूप में ले आया। वहाँ उस बच्चे को पशु की भाँति रखा गया। उसे हर प्रकार के ज्ञान से वंचित रखकर पशुओं की तरह खाना-पीना सिखाया गया। बाद में सम्मू निकट के ही एक अन्य गाँव (झरोली खुर्द) में वर्षों नौकर रहा। उस परिवार के सदस्य पुलिस एवं सेना में उच्चाधिकारी थे परन्तु सम्मू को आरम्भ से ही कोई ज्ञान नहीं दिया गया था। अतः वह लगभग नंगा ही रहता था। वह जहाँ सोता, उसी स्थान पर पेशाब आदि कर देता था। उसे अपने स्वामी तथा उस गाँव का नाम भी नहीं आता था। वह मनुष्य योनि में पशु था।
सीरिया के सम्राट् असुरवाणीपाल, यूनान के राजा सेमिटिकल, सम्राट् फ्रेडरिक द्वितीय, स्काटलैण्ड के जेम्स चतुर्थ तथा बादशाह अकबर आदि ने मनुष्य की असली भाषा जानने के लिए अबोध बालक-बालिकाओं को निर्जन वनों में गूंगी दाइयों के संरक्षण में रखा था। इन बच्चों में ज्ञान का विकास न हो पाया। ये केवल इशारे करना सीख पाए। अपने इन परीक्षणों के पश्चात् ये सम्राट् इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि शिक्षक के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
स्पष्ट है कि मनुष्य में ज्ञान प्राप्ति की शक्ति है अन्यथा सम्मू उर्दू वर्णमाला न सीख सकता परन्तु आरम्भ में सदैव शिक्षक की आवश्यकता पड़ती है। हाँ, कुछ ज्ञान-प्राप्ति कर लेने के पश्चात् उस निजी ज्ञान को अनुभव और बुद्धि के द्वारा बढ़ाया जा सकता है। जैसे बिना बीज के अंकुर पैदा नहीं हो सकता, वैसे ही ज्ञान के विकास के लिए बीजरूप ज्ञान जरूरी है। आरम्भ में ही ज्ञान का विकास सम्भव नहीं क्योंकि विकास एक क्रिया है तथा मनोविज्ञान के अनुसार क्रिया से पूर्व अनुभूति और अनुभूति से पूर्व ज्ञान की आवश्यकता होती है। डॉ. रसेल वैलेस तो यह मानते हैं कि “बौद्धिक क्षमता के निरन्तर विकास का कोई प्रमाण नहीं है।”2
सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य में नैमित्तिक ज्ञान न होने के कारण ईश्वर स्वयमेव जन-कल्याण हेतु आवश्यक ज्ञान का प्रकाश करते हैं। जिस प्रकार परमात्मा ने आँख की सहायता के लिए सूर्य बनाया है, उसी प्रकार बुद्धि के लिए ज्ञान रूपी सूर्य प्रदान किया है। जैसे सूर्य के बिना आँख व्यर्थ है, उसी प्रकार ज्ञान के बिना बुद्धि किस अर्थ? जैसे प्रत्येक कारीगर अपनी बनाई हुई वस्तु के उपयोग का ज्ञान देता है, उसी प्रकार प्रभु द्वारा आरम्भ में जगत् की वस्तुओं के उपयोग का ज्ञान दिया जाता है। परमात्मा न्यायकारी है इसलिए मनुष्य को कर्मानुसार फल देने से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि पाप-पुण्य क्या है? इन सभी का ज्ञान आदि सृष्टि में प्रभु अपनी कल्याणी वेदवाणी के द्वारा प्रदान करते हैं।
कई पश्चिमी दार्शनिकों ने भी ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता अनुभव किया है। अफलातून (प्लेटो) के अनुसार धार्मिक कर्मों की शिक्षा, अंधकार को दूर करने तथा जीवन यात्रा को सुगम बनाने के निर्देश देने हेतु ईश्वर अथवा प्रेरित व्यक्ति की जरूरत है।3 विचारानुसार धर्म और सदाचार सम्बन्धी नियमों के ज्ञानार्थ ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता है।4 इसी प्रकार फलिण्ट ने भी स्वीकार किया है-” मुक्ति के लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता है वह आत्मा और प्रकृति से प्राप्त नहीं होता। बुद्धि के गूढ़तम आविष्कारों के साथ-साथ हमें ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता होती है।” पातञ्जल योग सूत्र (1.26) में परमात्मा को सब का आदिगुरु बताया गया है-
स एष: पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।
