अगर इंसान की पहचान मज़हब से तय होने लगे और रिश्ते धर्म की दीवारों में बँट जाएं
तो समझिए समाज की आत्मा पर हमला हो चुका है।
यह लेख किसी धर्म के विरोध में नहीं है, बल्कि उस सोच के विरुद्ध है जो धर्म परिवर्तन को एक सामाजिक फैशन या भावनात्मक सौदेबाज़ी बना रही है। यह लेख उन घटनाओं के प्रति चिंता व्यक्त करता है, जिनमें मज़हब को बदलना अब ‘निजी चयन’ से ज़्यादा एक संगठित प्रभाव का परिणाम बनता जा रहा है। बीते कुछ समय में मैंने कई ऐसे मामले देखे और सुने, जिनमें युवा—प्रेम, लालच, भय या किसी भ्रम में पड़कर—अपनी पहचान, परंपरा, संस्कृति और आत्मा से कट जाते हैं। यह कोई दुर्लभ मामला नहीं, बल्कि समाज में धीरे-धीरे फैल रही एक सोचने योग्य प्रक्रिया है।
छांगुर बाबा की गिरफ़्तारी – बस एक बानगी!
हाल ही में एक स्वयंभू ‘छांगुर बाबा’ पर कार्रवाई हुई। उस पर आरोप है कि वह लोगों को चमत्कार, इलाज, मुक्ति और धर्म परिवर्तन का प्रलोभन देकर मानसिक रूप से प्रभावित करता था। लेकिन यह घटना केवल एक व्यक्ति की नहीं है।
यह एक संकेत है—कि ऐसे छांगुर बाबा केवल एक नहीं, अनेक रूपों में समाज में सक्रिय हैं।
वे कभी चमत्कारों के नाम पर, कभी शादी के नाम पर, कभी रोज़गार और इलाज के बहाने आम लोगों को धर्म परिवर्तन की ओर मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। और अक्सर उनका निशाना होता है—भावनात्मक रूप से कमजोर, आर्थिक रूप से पीड़ित या सामाजिक रूप से असुरक्षित व्यक्ति।
यह कोई आध्यात्मिक आंदोलन नहीं, एक संगठित सांस्कृतिक हमले की शुरुआत है।
प्रश्न कई हैं, उत्तर एक भी नहीं…
क्या ईश्वर किसी एक धर्म, भाषा या किताब में सीमित है?
क्या प्रेम के लिए, विवाह के लिए या किसी सामाजिक मान्यता के लिए अपना धर्म बदलना विवेकपूर्ण चयन कहलाएगा?
और क्या यह धर्म परिवर्तन पूरी तरह स्वेच्छा से है, या इसके पीछे कोई मनोवैज्ञानिक या संस्थागत दबाव है?
इन सवालों के जवाब हम सबको मिलकर खोजने होंगे, क्योंकि अगर समाज का हर वर्ग इस मानसिकता का शिकार होता गया, तो एक दिन यह राष्ट्रीय पहचान के विघटन तक पहुँच सकता है।
यह लेख मेरा निजी मत है
मैं साफ़ कर देना चाहता हूँ कि यह लेख मेरे निजी अनुभवों, चिंतन और सामाजिक अवलोकन पर आधारित है। इसका उद्देश्य किसी धर्म विशेष को नीचा दिखाना नहीं, बल्कि उस सोच पर सवाल उठाना है जो व्यक्ति की जड़ें काटकर उसे भ्रमित दिशा में ले जाती है।
अब समय है—चुप्पी तोड़ने का
धर्म को लेकर बहसें बहुत होती हैं, लेकिन धर्म परिवर्तन की आड़ में हो रहे भावनात्मक शोषण पर चर्चा कम। जब कोई व्यक्ति अपने मूल संस्कार, परवरिश और पहचान को त्यागकर एक नई पहचान ओढ़ लेता है—तो वह केवल धर्म नहीं, पूरा समाज बदल रहा होता है।
छांगुर बाबा जैसे चेहरे केवल शुरुआत हैं। असली लड़ाई उन विचारधाराओं और तंत्रों से है जो धर्म के नाम पर बाज़ार चला रहे हैं।
निष्कर्ष: धर्म से पहले विवेक और आत्मा ज़रूरी है
आज ज़रूरत है कि हम धर्म के नाम पर बहने से पहले सोचें—कि क्या हम सच में ‘ईश्वर’ की ओर जा रहे हैं या किसी संगठन, व्यक्ति या भावना के जाल में फँस रहे हैं?
धर्म परिवर्तन एक संवेदनशील विषय है। यह तभी सार्थक है जब वह चेतना से हो, दबाव से नहीं। रिपोर्ट: शिवांशु सिंह 151125593
