झारखंड के घने साल के जंगलों से एक ऐसा स्वाद निकलता है… जिसे खाने वाले कभी भूल नहीं पाते।
नाम है — रूगड़ा (फुटका)।
ये सब्ज़ी बाज़ार में हर रोज़ नहीं मिलती और न ही हर कोई इसे पहचानता है।
इसे खोजने के लिए जंगल में जाना पड़ता है, बारिश के बाद की मिट्टी में… जहाँ पैर रखने से पहले सोचो, और हाथ लगाने से पहले थोड़ा सब्र रखो।
रूगड़ा किसी खेती से नहीं आता, ये तो कुदरत की गोद से उपजा तोहफा है।
जब इसे घर लाते हैं, तब असली मेहनत शुरू होती है — एक-एक रूगड़ा को हाथ से छांटना, साफ़ करना… मिट्टी हटाओ, सने हुए हिस्से निकालो, और फिर घंटों बैठकर इन्हें धोते रहो।
पर यकीन मानिए, ये जो मेहनत है ना… वो बाद में थाली में जाकर खुशबू बन जाती है।
जब कड़ाही में तेल गर्म होता है, और उसमें लहसुन की पहली चट-चटाहट सुनाई देती है — तभी समझ आ जाता है, कि आज कुछ खास बनने वाला है।
प्याज़, टमाटर, हरी मिर्च और देशी मसाले जब रूगड़ा के साथ घुलते हैं, तो उसकी ख़ुशबू पूरे मोहल्ले को बता देती है —
‘यहाँ देसी जंगल का स्वाद थाली तक आ रहा है।’
और जब ये सब्ज़ी तैयार हो जाती है ना… तब पहले निवाले के साथ आँखें बंद हो जाती हैं —
क्योंकि वो स्वाद सिर्फ ज़ुबान पे नहीं, दिल पे असर करता है।
कभी माँ के हाथों से खाया था, आज अपने हाथों से बना रहे हैं…
पर एक बात अब भी नहीं बदली — इस रूगड़ा में आज भी बचपन का स्वाद आता है।
क्या आपने कभी रूगड़ा खाया है?
और अगर खाया है… तो वो पहला स्वाद याद है आपको?”
