"पिताजी अब रिटायर हो गए हैं..."
ये शब्द जितने साधारण लगते हैं,
उतनी ही बड़ी एक गलतफहमी
खुद इस वाक्य में छुपी होती है।
क्योंकि सच्चाई ये है
पिताजी कभी रिटायर नहीं होते।
न वक़्त से, न ज़िम्मेदारियों से।
न रिश्तों से, न फर्ज़ से।
नौकरी से रिटायर हो सकते हैं,
ऑफिस जाना बंद हो सकता है,
लेकिन ज़िम्मेदारियाँ...?
वो कभी खत्म नहीं होतीं।
जब बच्चे छोटे होते हैं, तो पिताजी घर चलाते हैं।
जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, तो पिताजी घर सम्भालते हैं।
जब बच्चे खुद बाप बन जाते हैं,
तब भी वो अपने पिताजी से सलाह लेते हैं...
क्योंकि "बाप", कभी सलाह से रिटायर नहीं होता।
बचपन में जब हम गिरते थे, माँ दौड़ती थी,
लेकिन पिताजी दूर से देखते थे।
क्योंकि उन्हें भरोसा होता था
कि अगर अब नहीं सीखा उठना,
तो ज़िंदगी इसे हर बार गिराएगी
और बच्चा हर बार किसी की ओर देखेगा।
उन्होंने हमें गिरने दिया...
लेकिन कभी गिरने नहीं दिया ज़िंदगी में।
कई बार लगता था कि पिताजी सख़्त क्यों हैं?
क्यों नहीं वो हमारे जैसे सोचते?
क्यों हर चीज़ में 'ना' ही सुनाई देती थी?
लेकिन आज जब खुद ज़िम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं,
EMI भरनी होती है,
बिल देखना होता है,
बच्चों के स्कूल की फीस से लेकर बूढ़े माँ-बाप की दवाइयों तक का हिसाब रखना होता है...
तब समझ आता है –
पिता की सख्ती दरअसल एक कवच होती है...
जो वो अपने बच्चों के भविष्य पर चढ़ा देता है।
पिता कभी थकते नहीं थे।
चाहे रात की शिफ्ट हो या दोपहर की धूप,
कभी अपनी हालत का ज़िक्र तक नहीं किया।
बेटा खांसी से परेशान हो, तो पूरा घर सिर पर उठा लेते थे,
लेकिन खुद बुखार में भी काम पर जाते थे...
क्यों?
क्योंकि पिताजी जानते थे
घर की नींव को खुद को मज़बूत रखना होता है,
दीवारों को हिलने नहीं देना होता।
आज जब हम उन्हें कुर्सी पर बैठे पाते हैं, चुपचाप खिड़की के बाहर देखते हुए,
तो लगता है कि वो अब "फ्री" हैं।
लेकिन नहीं...
अब भी उनके दिमाग़ में बस यही चलता है
"बेटा ठीक है ना?"
"पोता बड़ा हो रहा है, स्कूल की फीस कितनी होगी?"
"अब मेरा बेटा मेरे बिना ये सब कैसे मैनेज करता होगा?"
रिटायरमेंट उनके शरीर को मिलती है,
मन को नहीं।
सपने अब भी चलते हैं,
बस उनके नाम नहीं होते,
बच्चों के नाम से जुड़े होते हैं।
एक पिता कभी कहता नहीं –
"मुझे तुम्हारी ज़रूरत है"
वो बस दरवाज़े के पास बैठा इंतज़ार करता है
कि बेटा थोड़ी देर उसके पास बैठे,
थोड़ी बातें करे।
जब बच्चे पैसे कमाने लगते हैं, तो उन्हें लगता है कि अब पापा पर बोझ नहीं है।
पर सच्चाई यह है –
पैसा पापा का बोझ नहीं उठाता,
पापा ही हमेशा पैसे के बोझ से हमें बचाते रहे।
आज की पीढ़ी सोचती है कि मोबाइल में "Retired" लिख दिया तो बस –
अब उनकी ज़िम्मेदारी खत्म।
पर क्या किसी बेटे ने कभी पूछा है
"पिताजी, अब आप क्या करना चाहते हो?"
"अब आपकी ख्वाहिशें क्या हैं?"
"जिन चीजों के लिए आपने ज़िंदगी भर इंतज़ार किया, क्या अब उन्हें जीना चाहोगे?"
अगर नहीं पूछा है,
तो आज पूछिए।
आज बात कीजिए।
क्योंकि जिस दिन पिता चुप हो जाते हैं...
उस दिन घर में सबसे बड़ा सन्नाटा फैलता है।
पिता रिटायर नहीं होते।
वो बस एक दिन इतना थक जाते हैं,
कि मुस्कुराना भी छोड़ देते हैं।
उनके कंधे अब बोझ उठाने के काबिल नहीं रहते,
पर मन अब भी वही है –
जो चाहता है कि घर चलता रहे,
सब खुश रहें।
इसलिए अगली बार जब आप उन्हें एक कोने में बैठे हुए देखें,
तो मत समझिए कि वो अब “फ्री” हैं...
समझिए कि अब उन्हें हमारी “फिक्र” है।
और हमें उनकी “जरूरत”।
"पिता रिटायर नहीं होते,
वो बस उम्र के आख़िरी पड़ाव पर खड़े होकर
अपने बच्चों की ज़िंदगी को एक सफल मुसाफ़िर की तरह जाते हुए देखते हैं…
बिना कोई आवाज़ किए, बिना कोई शिकायत किए..."
