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संत श्री ज्ञानेश्वरजी महाराज विरचित:श्री ज्ञानेश्वरी16 अध्याय7
  • 151173860 - ARUN KUMAR NAGPAL 1 1
    03 Jul 2025 12:02 PM



 पहले भाग से  आगे

बिना भरे एक पग भी आगे नहीं बढ़ता। ठीक इसी प्रकार दयालु व्यक्ति भी अपने सम्मुख आनेवाले दीन व्यक्तिको संतुष्ट करके ही आगे कदम बढ़ाता है। जैसे पाँवमें काँटा चुभनेपर उसकी पीड़ाके चिह्न चेहरेपर प्रकट होते हैं, वैसे ही दूसरोंके दुःख देखकर वह भी अपने देहमें क्लेशका बोध करता है। जैसे पाँवमें ठंडक पहुँचनेपर उसकी तरावट आँखोंतक पहुँचती है, वैसे ही वह भी दूसरोंको सुखी देखकर स्वयं सुखी होता है। आशय यह कि जैसे पिपासित व्यक्तिको प्यास बुझानेके लिये जगत्में जलकी सृष्टि हुई है, वैसे ही दुःखसे संतप्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही जिसका जीवन होता है, हे वीरशिरोमणि! वह व्यक्ति मूर्तिमान् दया ही होता है। मैं उसका जन्मसे ही ऋणी होता हूँ। अब मैं तुमको 'भूतेष्वलोलुप्त्वम्' के बारेमें बतलाता हूँ; सुनो। कमलकी अनुरक्ति सूर्यके प्रति चाहे कितना ही क्यों न हो, पर फिर भी सूर्य कभी उसकी सुगन्धको स्पर्श नहीं करता अथवा वसन्तके मार्गमें चाहे कितनी ही अधिक वन-श्री क्यों न हो, तो भी वह उस वनश्रीको स्वीकार नहीं करता तथा निरन्तर आगे बढ़ता जाता है। फिर इतनी सब बातें किसलिये कही जायँ ? यदि महासिद्धियोंके समेत स्वयं लक्ष्मी ही क्यों न निकट आ जायँ, पर फिर भी महाविष्णुके लिये वह किसी गिनतीमें नहीं होती। ठीक इसी प्रकार लौकिक अथवा पारलौकिक विषय-सुख चाहे उसकी इच्छाके दास ही क्यों न बन जायँ, पर फिर भी अलोलुप व्यक्ति कभी भी उन सुखोंको भोगनेका विचार अपने मनमें नहीं करता। किंबहुना, जिस अवस्थामें जीवके मनमें कुतूहलसे भी विषयोंकी अभिलाषा नहीं रह जाती, उसी अवस्थाको 'अलोलुप्त्व' जानना चाहिये। अब मैं तुमको यह बतलाता हूँ कि 'मार्दव' किसे कहते हैं। मधुमक्खियोंके लिये जैसे शहदका छत्ता अथवा जलचरोंके लिये जल अथवा पक्षियोंके लिये खुला आकाश अथवा बालकके लिये माताका प्रेम अथवा वसन्तके स्पर्शसे कोमल होनेवाली मलय वायु अथवा नेत्रोंके लिये प्रियजनोंके दर्शन अथवा अपने बच्चोंके लिये जैसे कच्छपीकी

दृष्टि होती है, वैसे ही मार्दवगुणसम्पन्न व्यक्तिका प्राणिमात्रके साथ अत्यन्त मृदु तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार होता है। जो कपूर छूनेमें अत्यन्त कोमल, खानेमें बहुत ही स्वादिष्ट, घ्राणेन्द्रियके लिये अत्यन्त सुगन्धित तथा देखनेमें अत्यन्त निर्मल होता है, वह अभीष्ट मात्रामें मिल जाता है। वह यदि विषाक्त न होता और उसकी विषाक्तता बीचमें बाधक न होती, तो वह अपनी मृदुता और निर्मलताके कारण मार्दवगुणयुक्त व्यक्तिकी कोमलताकी बराबरी कर सकता। गगन जैसे महाभूतोंको भी अपने पेटमें रखता है तथा परमाणुओंमें भी समाया रहता है और विश्वानुरूप ही अपना आकार भी बना लेता है, हे पार्थ! मैं और अधिक क्या कहूँ, ठीक उसी गगनकी भाँति समस्त जगत्के जीवों और प्राणियोंके लिये जीता है उसे ही मैं 'मार्दव' नामसे सम्बोधित करता हूँ।

अब मैं 'लज्जा' गुणका लक्षण बतलाता हूँ, सुनो। जैसे पराजित होनेपर कोई राजा मारे लज्जाके मुँह नहीं दिखला सकता अथवा अपमानके कारण जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति तेजहीन हो जाता है अथवा जैसे भूलसे किसी चाण्डालके घरमें जा पहुँचनेपर किसी संन्यासीको अत्यधिक लज्जा जान पड़ती है अथवा युद्धभूमिसे क्षत्रियका पलायन जैसे लज्जास्पद होता है और उसे कोई सहन नहीं कर सकता अथवा पतिव्रताके लिये जैसे वैधव्यका आमन्त्रण अत्यन्त कष्टकारक और असह्य होता है अथवा जैसे किसी रूपवान् व्यक्तिके देहमें कुष्ठ होनेपर अथवा किसी सम्मानित व्यक्तिपर व्यर्थ ही कोई लांछन लगनेपर मारे लज्जाके उसके प्राण संकटमें आ जाते हैं, वैसे ही इस साढ़े तीन हाथके देहमें आबद्ध होकर प्रेत-जैसा जीना और पुनः पुनः जन्म धारण करना और मृत्युका शिकार होना तथा गर्भाशयके विवरके साँचेमें रक्त, मूत्र और रसका पुतला बनकर रहना उसके लिये अत्यन्त लज्जास्पद होता है। आशय यह कि शरीरके बन्धनमें पड़कर नाम-रूपात्मक होनेसे बढ़कर लज्जाजनक और कोई बात उसके लिये हो ही नहीं सकती। ऐसे देहके प्रति जो घृणा उत्पन्न होती है

उसीको लज्जा कहते हैं। परन्तु यह लज्जा सिर्फ साधुओंको ही जान पड़ती है, निर्लज्जोंको तो यह देह अत्यन्त प्रिय लगता है। अब मैं 'अचापल्य' गुणकी व्याख्या करता हूँ। जैसे कठपुतलियोंको नचानेवाली डोरीके टूट जानेसे उनका हिलना-डुलना इत्यादि बन्द हो जाता है, वैसे ही योगका साधन करनेसे कर्मेन्द्रियोंकी गति बन्द हो जाती है अथवा जैसे सूर्यास्त होनेपर उसकी रश्मियोंका जाल भी छिप जाता है, वैसे ही मनोनिग्रह करनेसे इन्द्रियाँ भी पूर्णतया दब जाती हैं। इस प्रकार मन और प्राणका नियमन तथा योगका साधन करनेसे दसों इन्द्रियाँ अक्षम हो जाती हैं; इसी अवस्थाको 'अचापल्य' नामसे पुकारते हैं। 

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥ ३ ॥

यदि ईश्वर-प्राप्तिके लिये ज्ञानके मार्गमें कदम रखते समय मनमें दृढ़ निश्चय हो गया हो तो फिर धैर्यकी कमी नहीं होती। एक तो मृत्यु वैसे ही भयंकर होती है, तिसपर अग्निमें जलकर मरना तो और भी अधिक भयंकर होता है। लेकिन इतना होनेपर भी पतिव्रता उसपर जलकर मरनेकी भी परवाह नहीं करती। ठीक इसी प्रकार आत्मप्राप्तिकी अग्निसे विषयरूपी विषको जीव भस्मकर निकाल डालता है और तब शून्यकी ओर जानेवाले योग-साधनके विकट मार्गपर जल्दी आगे बढ़ने लगता है। फिर किसी प्रकारका निषेध उसके मार्गमें बाधक नहीं होता। वह न तो विधिको ही मानता है और न तो महासिद्धियोंके मोहपाशमें ही पड़ता है। इस प्रकार अपनी आन्तरिक प्रेरणासे ईश्वरकी ओर बढ़नेको 'आध्यात्मिक तेज' कहते हैं। यदि व्यक्तिमें इस प्रकारका अहंकार न हो कि समस्त धैर्यशालियोंमें एकमात्र मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ, तो इसीको 'क्षमा' जानना चाहिये। देहपर सहस्रों रोम होते हैं, पर उनका भार सहन करनेपर भी देहको कभी उनका भान भी नहीं होता। यदि इन्द्रियाँ कुमार्गगामी हो जायँ अथवा देहस्थ कोई जीर्ण व्याधि एकदमसे उभड़ पड़े अथवा प्रियजनोंका अकस्मात् वियोग

हो जाय और अप्रियके साथ काम पड़े अथवा इसी प्रकारके अन्य किसी अनिष्ट चीजोंकी एक ही समय वहाँ बाढ़ भी आ जाय तो भी अगस्त-ऋषिकी तरह सीना तानकर उसके समक्ष निश्चल भावसे खड़े रहना और हे पाण्डव ! यदि आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक-तीनों प्रकारके ताप आकर खड़े हों तो उन सबको ठीक वैसे ही अति तुच्छ समझकर अपने सामनेसे हटा देना, जैसे आकाशमें उड़नेवाली धूएँकी रेखाको वायु एक ही झोंकेमें उड़ा देती है और चित्तको अस्थिर करनेवाले ऐसे विकट प्रसंगके आ पड़नेपर भी धैर्य न त्यागकर भलीभाँति उसके मुकाबलेमें डॅटे रहनेका नाम ही 'धृति' है। अब मैं 'शौच' के सम्बन्धमें बतलाता हूँ। 'शौच' सोनेका मुलम्मा चढ़ा-चढ़ाकर स्वच्छ किये हुए गंगाजलसे भरे हुए कलशकी भाँति है, कारण कि देहके द्वारा निष्काम कर्मोंका होना तथा जीवका विवेकानुसार आचरण करना सब शुचित्वके ही ऊपरसे दृष्टिगत होनेवाले ये लक्षण हैं अथवा जैसे गंगाजल भूतमात्रके सन्तापका शमन करता है और अपने तटपर स्थित वृक्षोंका पोषण करता हुआ समुद्रकी ओर प्रस्थान करता है अथवा जैसे सूर्य संसारका तिमिर भगाता हुआ और सम्पत्तिके मन्दिरोंके द्वार खोलता हुआ आकाशकी परिक्रमा करनेके लिये निकलता है, वैसे ही वह भी बन्धनमें पड़े हुए लोगोंको मुक्त करता है, डूबते हुए लोगोंको बाहर निकालता है और दुःखीजनोंके दुःखका निवारण करता है। अपितु यह कहना चाहिये कि वह अहर्निश दूसरोंका सुख अधिक-से-अधिक बढ़ाता हुआ प्रकारान्तरसे अपना ही उल्लू सीधा करता है। सिर्फ यही नहीं, अपना काम बनानेके लिये किसी जीवकी बुराई करनेकी कल्पना भी कभी उसके चित्तमें उत्पन्न होकर उसका मार्गावरोधक नहीं होती। हे किरीटी ! अभी जो यह सब तुमने सुना है, वह सब अद्रोहके लक्षण हैं और जिस प्रकार मैंने ये लक्षण तुम्हें बतलाये हैं, उसी प्रकार ये तुम्हें उस व्यक्तिमें स्पष्ट दृष्टिगत होंगे जिसमें अद्रोह होगा। हे पार्थ ! जैसे गंगा शंकरके मस्तकपर पहुँचकर संकुचित हो गयीं, वैसे ही मानकी



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