नई दिल्ली। जनगणना के साथ होने वाली जातिवार गणना में हिंदुओं के साथ-साथ मुस्लिमों में जातियों की गणना की जाएगी। अभी तक जनगणना के साथ मुस्लिमों की गणना एक धार्मिक समूह के रूप में की जाती थी।
जातिवार गणना के बाद मुस्लिम समाज में विभिन्न जातियों और उनके सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति के ठोस आंकड़े सामने आएंगे। एकजुट मुस्लिम वोटबैंक को तोड़ने की दिशा में इसे अहम माना जा रहा है।
कैबिनेट के फैसले से बदल सकते हैं राजनीतिक समीकरण
ध्यान देने की बात है कि गुरूवार को कैबिनेट की बैठक में पहली बार जनगणना के साथ जातिवार गणना कराने का फैसला किया गया है। जाहिर है मुस्लिम समाज में विभिन्न जातियों की सही संख्या पहली बार सामने आएगी। इसके दूरगामी राजनीतिक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। दरअसल अभी तक जातिवार जनगणना की मांग ओबीसी वोट को ध्यान में रखकर होती रही है।
पसमांदा मुसलमानों को मिल सकता है प्रतिनिधित्व
दावा किया जाता है कि मुस्लिम समाज में भी 85 फीसद जनसंख्या पसमांदा मुसलमानों की है, जो पिछड़े हुए हैं। लेकिन सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है। लेकिन ठोस आंकड़े नहीं होने के कारण उनकी आवाज अनसुनी कर दी जाती है। देश के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड में भी एक भी पसमांदा मुसलमान सदस्य नहीं है।
भाजपा की रणनीति और असम का उदाहरण
जातिवार जनगणना के आंकड़े सामने के बाद पसमांदा या अन्य जातियों के मुसलमान भी अपनी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व की मांग कर सकते हैं। भाजपा लंबे समय से जातिवार गणना में मुस्लिम जातियों को शामिल करने का मुद्दा उठाती रही है। पिछले साल असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने मुसलमानों की जातिवार गणना कराई थी। इसकी रिपोर्ट के आधार पर असम के मूल मुसलमानों को एसटी का दर्जा भी दिया गया।
वक्फ कानून में भी पसमांदा मुसलमानों को मिली जगह
यानी उन्हें एसटी के तहत मिलने वाली सभी सुविधाओं का लाभ मिलेगा। इसके अलावा मोदी सरकार ने वक्फ संशोधन कानून में भी पसमांदा मुसलमानों को खासा अहमियत दी है। पिछले महीने संसद के पारित इस कानून में वक्फ बोर्डों में दो सदस्य पसमांदा मुसलमान के होने का प्रविधान किया गया है। इस समय देश में कुल 32 वक्फ बोर्ड हैं, जिनमें एक भी सदस्य पसमांदा मुसलमान नहीं है।
