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सिस्टम से जूझती ईमानदारी की भावुक कहानी, सीबीआई से हारे अफसर को मिली ‘सुप्रीम’ जीत
  • 151000001 - PRABHAKAR DWIVEDI 0 0
    30 Apr 2025 09:40 AM



Movie Review कॉस्तॉव
कलाकार नवाजुद्दीन सिद्दीकी , प्रिया बापट , किशोर कुमार जी , हुसैन दलाल , रोहित तिवारी और गगन देव रियार आदि
लेखक भवेश मंडालिया और मेघना श्रीवास्तव
निर्देशक सेजल शाह
निर्माता विनोद भानुशाली
रिलीज 1 मई 2025
ओटीटी  जी5
रेटिंग 3/5

अगर आपको लगता है कि मौजूदा दौर ही ईमानदारी की कठिन परीक्षा ले रहा है, तो जरा ठिठक कर सोचेंगे तो पता चलेगा कि ऐसा तो हमेशा से होता आया है। सिस्टम चलाने वाले बदलते जाते हैं, ईमानदारी का पाठ पढ़ाने वाले भी बदलते जाते हैं, बस नहीं बदलता है तो हर दौर में किसी न किसी इंसान में जाग चुका ईमानदारी का एक ऐसा कीड़ा जिसकी कुलबुलाती कहानियां लोग तब तक आगे सुनते-सुनाते रहते हैं, जब तक कि ऐसा ही कोई और नया किस्सा न सामने आ जाए। संयोग ही है कि फिल्म ‘कॉस्तॉव’ उसी दिन रिलीज हो रही है जिस दिन अशोक खेमका नामक आईएएस अफसर सेवानिवृत्त हो रहे हैं। 33 साल की नौकरी में 57 बार तबादले झेल चुके खेमका की बायोपिक भी किसी न किसी के मन में चल ही रही होगी, लेकिन फिलहाल बात गोवा में तैनात रहे कस्टम अधिकारी कॉस्तॉव फर्नांडिस की। 

कस्टम अफसर के मजबूत कलेजे की कहानी
फिल्म ‘कॉस्तॉव’ एक जीते जागते शख्स की कहानी है। कॉस्तॉव फर्नांडिस अब भी जीवित हैं। उनका किरदार फिल्म में निभा रहे नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने उनसे मिलकर काफी कुछ उनके बारे में जाना। फिल्म की रिसर्च टीम ने भी अच्छा काम किया है। कहानी कॉस्तॉव की बेटी सुना रही है। वही बेटी जिसे उसके पिता की सोहबत ने मुखबिरी करनी सिखा दी। वह सब देखती सुनती है और अपनी एक फाइल में संजोती जाती है। पापा का नाम छपता है अखबार में तो वह उसकी कटिंग निकालकर रख लेती है। खबर अवैध तरीके से आ रहे सोने की जब्ती की है। लेकिन, यही सोना कॉस्तॉव का जीवन तबाह कर देता है। गोवा के माफिया डिमैलो के भाई की उसके हाथों उस वक्त मौत हो जाती है, जब वह सोने की तस्करी के एक बड़े मामले का पर्दाफाश करने की कोशिश कर रहा होता है। डिमैलो की पहुंच दिल्ली तक है और दिल्ली के भेजी सीबीआई कैसे काम करती है, इसका एक नमूना फिल्म में देखने को मिलता है।
 
सीबीआई के दामन का दाग दिखाती फिल्म
सब मानते हैं और सब जानते हैं कि कॉस्तॉव एक ईमानदार अफसर है। उसके जैसा ईमानदार अफसर अपने विभाग की शान है। सारे कस्टम वाले उसे चाहते हैं। उसकी हर तरह से मदद भी करते हैं। लेकिन, सीबीआई उसे कत्ल के इल्जाम में गले तक फंसा चुकी है। आखिरी उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से होती है, जहां अगर कॉस्तॉव अपने मुखबिर का नाम बता दे तो उसके बचने की उम्मीद भी है। पर, वह अपनी जान की कीमत पर मुखबिर की जान खतरे में डालने से इन्कार कर देता है। और, कॉस्तॉव की यही ईमानदारी एक ऐसी तारीखी मिसाल बन जाती है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय का आदेश उन तमाम अफसरों की ढाल बन चुका है जो वर्दी पहनकर देश की रक्षा में लगे हैं और अपने मुखबिरों के नेटवर्क के बूते देश के दुश्मनों से लड़ रहे हैं। कॉस्तॉव फर्नांडिस बाइज्जत बरी हुए। राष्ट्रपति पदक से सम्मानित हुए। लेकिन, उस समय का क्या जो कॉस्तॉव ने दागदार दामन के साथ घुट घुटकर और अपने परिवार से दूर बिताया।
 
देशभक्ति के असल मायने सिखाती फिल्म
देखा जाए तो फिल्म ‘कॉस्तॉव’ असल देशभक्ति की फिल्म है। यहां नायक अपनी पत्नी के ये पूछने पर कि वह उससे कितना प्यार करता है, उसे देशप्रेम की अहमियत के साथ साथ उससे प्रेम की भी अहमियत समझाता है। ये और बात है कि जो भी वह कहना चाहता है उसके लिए उसके पास ऐन मौके पर सही शब्द नहीं होते। ये फिल्म खुद से पहले परिवार, परिवार से पहले समाज और समाज से पहले देश का संदेश देने वाली फिल्म है। तिरंगा भी फिल्म में एक जगह दिखता है जिसका अशोक चक्र झंडे की एक ही तरफ बना है। फिल्म में देशप्रेम के नाम पर कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं है, हैंडपंप या पंखा उखाड़ने जैसी बात नहीं है। हीरो कराटे में ब्लैकबेल्ट है लेकिन पिटता फिर भी रहता है। पत्नी उसकी ठीक वैसी है जैसी आम ईमानदार लोगों की होती है। उसे क्या ही परवाह कि उसका पति किन मानसिक हालात से गुजर रहा है? उसे अपना घर सही चाहिए और उसे ये भी चाहिए कि उसका पति जिस किसी भी चीज में फंसा हुआ है, वह जल्दी खत्म हो ताकि वह और उसके बच्चे सुकून की जिंदगी जी सकें। सुकून और जिंदगी दोनों किसी ईमानदार शख्स के लिए कितने विरोधाभासी एहसास हो सकते हैं, फिल्म ‘कॉस्तॉव’ खुलकर समझाती है।
 
बायोपिक के बाजीगर की हैट्रिक
फिल्म ‘कॉस्तॉव’ उन्हीं विनोद भानुशाली ने बनाई है जो इसके पहले ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ और ‘मैं अटल हूं’ जैसी फिल्में बना चुके हैं। ‘कॉस्तॉव’ उनकी तीसरी बायोपिक है और पहली दोनों फिल्मों के बीच की फिल्म है। ये न तो बहुत उत्कृष्ट फिल्म मानी जा सकती है और न ही बहुत औसत, ये एक दिलचस्प फिल्म है जिसे एक बार देखे जाने से मन को सुकून मिलता है और दिमाग को कई सारे ऐसे सवाल, जिनके जवाब सोचते ही जमीर बेचैन हो उठता है। विनोद को बायोपिक का बाजीगर का तमगा मिला हुआ है। कुछ और बायोपिक के तीर अभी उनके तरकश में बाकी हैं। फिल्म ‘कॉस्तॉव’ में उन्होंने नवाजुद्दीन सिद्दीकी को नया जीवनदान दिया है। गोवानी कॉस्तॉव फर्नांडिस का लहजा पकड़ने में हालांकि नवाजुद्दीन सिद्दीकी कहीं कहीं चूके हैं लेकिन ‘मांझी’, ‘रमन राघव’, ‘ठाकरे’ और ‘मंटो’ से दो कदम आगे वह यहां जरूर हैं। तीन बड़े हो चुके बच्चों के पिता के रूप में नवाजुद्दीन फिल्म के दूसरे हिस्से में काफी प्रभावित करते हैं।
 
ओटीटी के लिए बनी अच्छी फिल्म
निर्देशक सेजल शाह ने फिल्म ‘कॉस्तॉव’ में इसके असल किरदार की कहानी क्लोज अप में रखकर बनाई है। यही कहानी अगर थोड़ा वाइड एंगल लेंस के साथ सोची गई होती तो इसमें ईमानदारी के कुछ और संदर्भ उस कालखंड के जोड़े जा सकते थे। एक नितांत वैयक्तिक कहानी और वह भी गोवा के एक अफसर की, शुरू में तो उत्सुकता जगाती है लेकिन जैसे जैसे पटकथा इसी एक किरदार के चारों तरफ अति केंद्रित होनी शुरू होती है, निर्देशक की पकड़ फिल्म के कथानक से ढीली पड़ने लगती है। नवाजुद्दीन के प्रशंसकों को फिल्म खास पसंद आएगी। फिल्म चूंकि ओटीटी पर है लिहाजा जेब पर भी ये बहुत भारी नहीं है और यही इसकी जीत भी है। प्रिया बापट और गगन देव रियार ने फिल्म को अच्छा संभाला है। किशोर कुमार जी के पास खलनायकी में नया कुछ कर दिखाने लायक कैनवास यहां रहा नहीं। हां, कॉस्तॉव के सीनियर अफसर बने रोहित तिवारी का अभिनय गौर करने लायक है। कास्टिंग डायरेक्टर शिवम गुप्ता ने फिल्म के लिए सहायक कलाकार भी अच्छे तलाशे हैं।

Amar Ujala on X: "Castao Movie Review: सिस्टम से जूझती ईमानदारी की भावुक  कहानी, सीबीआई से हारे अफसर को मिली 'सुप्रीम' जीत #CastaoMovieReview by  @pankajshuklaa #Castao #SejalShah ...



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