काशी के प्रख्यात अग्निहोत्री वैदिक देवेन्द्र चतुर्वेदी महाराज ने काशी के परम पवित्र धाम से दिल्ली शहर के अक्षर धाम मंदिर के प्रांगण में आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित होकर उन्होंने अपने संबोधन के क्रम में सभी से कहा की बहुत ही कम समय में भारत अपने प्राचीन वैदिक परम्परा को जीवंत करने के उद्देश्य से सम्पूर्ण विश्व के अनाथ आश्रम में रहने वाले 7 से 11 वर्ष के अन्तराल के बच्चों को लेकर एक विशाल नूतन विश्वविद्यालय के योजना के लिए कार्य करने का विचार कर रहा है उन्होंने बताया कि इस विषय पर गत वर्ष देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से दिल्ली में मिलकर एक छोटा सा चर्चा भी किया गया है जिसमें प्रधानमंत्री ने अपनी प्रसन्नता जाहिर किया है आगे के क्रम में महाराज ने कहा की दैन्यभाव से भगवदाश्रित होकर भगवद्दत्त साधनों का उपयोग करते हुये निश्चय करो कि मैं अपने जीवन में सब कुछ कर सकता हूं ये श्रुति का चारों वर्णों के लिये प्रोत्साहन है।
सबसे परे पुरुष अर्थात् नारायण हैं, उनसे परे कोई नहीं है- पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गति:॥ { कठोपनिषद् १.३.११ } उन्हीं भगवान् के श्रीचरणों के आश्रित होना मनुष्य जाति का परम कर्तव्य है।कतिपय लोग मान बड़ाई पाने के लिये दिव्य ग्रथों को ही जलाकर राष्ट्र एवं धर्म के साथ द्रोह करते हुए तुच्छ राजनीति में जीवन का बहुमूल्य समय नष्ट कर रहे हैं। सनातनधर्म अनेकता में एकता लेकर अनादिकाल से चला आ रहा है। सनातनधर्म को माननेवाले हिन्दू बन्धुओं से आग्रह है कि किसी के बहकावे में आकर अपने धर्म की निन्दा न तो सुनें न स्वयं ही करें। यदि आप धर्म की रक्षा करेंगे तो निश्चित ही धर्म द्वारा आप सभी की भी रक्षा होगी।
श्रीरामचरितमानस को 700 वर्षों से पढ़ते पूर्वज लोग आ रहे हैं, किसी को भी दोष इसमें नहीं दिखाई पड़ा,अब दोष विधर्मी नेताओं को दिखाई पड़ रहा है पर वे कभी भी सफल नहीं हो पायेंगे। श्रीरामचरितमानस समतामूलक भक्तिप्रद ग्रन्थ है जो दुसरों के हित को ही सनातनधर्म मानता है। ॥परहित सरिस धरम नहीं भाई॥ विवेक से कार्य करना चाहिए । विवेचन को विवेक कहा जाता है-‘ विवेचनं विवेक:’। अपने जीवन में जो प्रमाद है, भूल है, आसावधानी है,वही है मृत्यु-‘प्रमादं वै मृत्युं ब्रवीमि।’ { महाभारत उद्योगपर्व ४२.४ } गोस्वामी तुलसीदास जी विनय-पत्रिका में लिखते हैं- ‘चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई। हेतु रहित अनुराग रामपद बढ़ै अनुदिन अधिकाई।। ( १०३ ) शरणागत का मन तो सदैव श्रीभगवान् की ओर बढ़ता है, यदि मन में चाह बनी हुई है, मन विषयी हो रहा है तो आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है, क्योंकि विषयी मन ही बन्धन का कारण है अन्यथा श्रीभगवान् का अंश जीव बन्धन में पड़े ही क्यों ? श्रीमद्भागवत में श्रीब्रह्माजी कहते हैं – चेत: खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम्।
गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये॥ { ३.२५.१५ } भगवद्भक्तों का कल्याण भगवान के प्रसन्नता में ही निहित है।