काशी के प्रख्यात अग्निहोत्री वैदिक देवेन्द्र चतुर्वेदी जी महाराज ने अपने प्रवचन के माध्यम से भगवान के अर्चना के संबंध में कहा की भगवान श्रीविष्णु के किसी भी स्वरूप के मंदिरों में पाँच प्रकार से पूजा की विधि आगम शास्त्रों में मिलती है। ये है पाँच प्रकार- 1.अभिगमन 2.उपादान 3.इज्या 4.स्वाध्याय 5. योग। उपर्युक्त पाँच प्रकार की पूजा कैसे की जाती है उसे समझें। 1.अभिगमन- नित्य श्रीभगवान् के मन्दिर में जाकर वहाँ की व्यवस्था में यथासम्भव सहयोग करना अभिगमन कहलाता है। यथा सम्भव मन्दिरों में सेवा की जाती है तन, मन, धन के द्वारा सेवा करनी चाहिए।
तन से सेवा करना अर्थात् मन्दिर में सफाई करना, भगवान् के भोग नैवेद्य के लिये चावल, दाल, शाक आदि को अमनिया करना, तुलसी, पुष्प, फल लाना, माला बनाना, पोशाक बनाना आदि। मन से सेवा अर्थात् जो कुछ सेवा सम्भव हो सके उसे श्रद्धा-भक्ति के साथ से करना।
धन से सेवा - मन में भाव बने की धन तो लक्ष्मी क्योंकि लक्ष्मी का एक नाम 'मा' है " इन्दिरा लोकमाता मा क्षीरोदतनया रमा {अमरकोश }'मा' का तो उपयोग होता है, क्योंकि ‘मा’ का उपभोग नहीं किया जा सकता है, इसलिए धन का उपयोग करना है, क्योंकि धन दुरुपयोग तो विप्लव का कारण बन जाता है। उपर्युक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए मंदिर में धन का विनियोग कर समाज की सेवा मंदिरों के माध्यम से करनी चाहिए। मन्दिर के माध्यम से भगवान् के भक्तों की सेवा करना धन का उपयोग है इसलिये श्रीभगवान् की सेवा में सात्विक धन को लगाना धन से सेवा करना कहलाता है।
2. उपादान- श्रीभगवान् की पूजा सामग्री का सम्पादन करना, भगवान् की सेवा के लिये भगवान् के बर्तन आदि को अर्चक की आज्ञा से धोकर पूजा के योग्य बना देना, अर्थात् परिचर्या करना।
परिचारक का कैंकर्य सम्पादित करना उपादान कहलाता है। 3. इज्या- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ ‘विरक्त’, संन्यासी द्वारा शास्त्र अनुमोदित वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार नित्य श्रीभगवान् की आराधना करने को इज्या कहा जाता है। 4. स्वाध्याय- अर्थानुसन्धानपूर्वक मूलमन्त्र, द्वयमन्त्र का जप से स्तोत्रपाठ एवं दिव्यशास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है।
5.योग-श्रीभगवान् के ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, तेज, सौशील्य, वात्सल्य, औदार्य, कारुण्य आदि दिव्यतमगुणों का मनन -चिन्तन करते हुये उनके मंगलमय दिव्यस्वरुपों का ध्यान करना योग कहलाता है। उपर्युक्त पाँच प्रकार की सेवा को पाँचरात्र एवं वैखानस आगम श्रीभगवान् की महत्वपूर्ण सेवा मानते हैं। ये आनुश्रविक भगवत्कैंकर्य की विधि है जिसे श्रीवैष्णवजनों का शिष्टाचार कहा जाता है। ज्ञातव्य है कि पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी, अर्चा ये श्रीभगवान् के पाँच स्वरुप शास्त्र प्रतिपादित है जिसमें अर्चास्वरुप की महत्ता इसलिए है कि मंदिरों में विराजमान अर्चावतार श्रीभगवान् का ध्यान, कैंकर्य ‘ सेवा-पूजा’ सहजता पूर्वक आसानी से किया जा सकता है।
ध्यातव्य है कि पर व्यूह, विभव आदि के वर्णन किये हुए संकेत से प्राप्त रुपों के आधार पर साकार स्वयंव्यक्त या प्राणप्रतिष्ठितमूर्ति को अर्चा, प्रतिमा या बिम्ब कहते हैं जो मंदिरों में विराजमान रहते हैं उनमें सूक्ष्म तरीक़े दिव्यभाव से श्रीभगवान् अवस्थित रहकर भक्तों के द्वारा की गई सेवा, पूजा को निश्चित ही स्वीकार करते हैं। ये अर्चावतार भी षड्गुणाश्रय एवं षड्गुणसम्पन्न हैं।
“ अर्चायां अवतीर्ण: अर्चावतार:" अर्चावतार की नित्य झाँकीं का दर्शन करने से स्वत: ही उनका ध्यान होने लगता है। -अग्निहोत्री वैदिक देवेन्द्र चतुर्वेदी जी महाराज