पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा क्षेत्र में हुए आतंकी हमले ने अफगानिस्तान से लगे देश के सीमाई क्षेत्र में सुरक्षा की बिगड़ती स्थिति की याद बहुत गंभीर ढंग से दिलायी है। इस हमले में 54 लोगों की जान चली गयी और 200 लोग घायल हैं। अगस्त 2021 में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद से, पाकिस्तान में आतंकी घटनाएं बढ़ी हैं। जनवरी में, खैबर-पख्तूनख्वा की राजधानी, पेशावर की एक मस्जिद में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (इसे पाकिस्तान तालिबान के नाम से भी जाना जाता है और इसके अफगान तालिबान से करीबी वैचारिक रिश्ते हैं, लेकिन सांगठनिक रूप से उससे अलग है) के हमले में 74 लोग मारे गये। एक महीने बाद, एक अन्य हमले में 100 लोगों की मौत हो गयी।
पाकिस्तान तालिबान ने खुद को उस हमले से अलग कर लिया है, जिसमें जमीयत उलमा-ए-इस्लाम-फज्ल (जेयूआई-एफ) द्वारा आयोजित राजनीतिक रैली को निशाना बनाया गया। जेयूआई-एफ एक कट्टरपंथी पार्टी है, जिसका नेतृत्व पाकिस्तान के सत्तारूढ़ गठबंधन के एक अहम सदस्य मौलाना फज्लुर रहमान करते हैं। प्रांतीय पुलिस का कहना है कि इस हमले के पीछे इस्लामिक स्टेट-खुरासान (आईएस-के) है। सन् 2021 से आईएस-के ने अफगानिस्तान में हमले तेज कर दिये हैं। उसने अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों के साथ ही तालिबान से जुड़े समूहों को बार-बार निशाना बनाया है। अफगान तालिबान से वैचारिक रिश्ते बनाये रखने वाले जेयूआई-एफ को आईएस-के ने पहले भी निशाना बनाया है।
एक तरह से, पाकिस्तान अपने भू-राजनीतिक लक्ष्यों के लिए इस्लामी चरमपंथियों को समर्थन देने की अपनी दशकों पुरानी नीति की अब भारी कीमत चुका रहा है। अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट-विरोधी गृहयुद्ध के दौरान, पाकिस्तान ने मुजाहिदीन को हथियारों और प्रशिक्षण से समर्थन दिया। सन् 1990 के दशक के शुरू में, मुजाहिदीन के आपसी गृहयुद्ध के दौरान, पाकिस्तान ने उभरते तालिबान की मदद की। वर्ष 2001 में अमेरिकी आक्रमण में तालिबान के पतन के बाद, पाकिस्तान ने दोहरा खेल खेला। वह अमेरिकी युद्ध में शामिल हुआ और तालिबान को पनाह भी देता रहा। पाकिस्तान के सक्रिय समर्थन के बगैर, तालिबान कभी सत्ता में लौट नहीं पाता। लेकिन दशकों के गृहयुद्ध ने पूरे अफगान-पाक क्षेत्र में मुस्लिम नौजवानों को कट्टरपंथी बना दिया।
यह पाकिस्तानी इस्टैबलिशमेंट (देश की सत्ता चलाने वाले सैन्य-नागरिक गठजोड़ ) के सामने सुरक्षा के खतरे भी पेश कर रहा है। वर्ष 2014-2015 में, पाकिस्तान ने पाकिस्तान तालिबान को कुचलने के लिए सीमाई क्षेत्र में गहन तलाशी अभियान चलाया। लेकिन ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी ने उनके पाकिस्तानी बिरादरान की हिम्मत बढ़ायी है और साथ ही आईएस-के को काबुल में तालिबान शासन के सबसे शक्तिशाली हथियारबंद विपक्षी के रूप में उभरने का मौका दिया है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान की जगह-जगह से खुली सीमाओं का इस्तेमाल पाकिस्तान ने कभी अफगानिस्तान में आतंकवाद को समर्थन देने के लिए किया था।
और, अब आतंकवादियों द्वारा इसका इस्तेमाल सीमांत क्षेत्र में आतंक फैलाने के लिए किया जा रहा है। राजनीतिक गतिरोध और बिगड़ती अर्थव्यवस्था से जूझ रहा पाकिस्तान अब दो मोर्चों पर सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है। ये चुनौतियां हैं- पाकिस्तानी तालिबान और आईएस-के। आतंकवाद पर शिकंजा कसने से सीमाई क्षेत्र में शांति लाने की दिशा में अस्थायी नतीजे हासिल हो सकते हैं। लेकिन स्थायी शांति के लिए, पाकिस्तान को अपने भू-राजनीतिक हितों के आधार पर इस्लामी आतंकवादियों के बीच ‘अच्छे आतंकवादियों’ और ‘बुरे आतंकवादियों’ का फर्क करना बंद कर देना चाहिए।
