नई दिल्ली। यह देखना दुखद, दयनीय और शर्मनाक है कि मणिपुर को लेकर देश-दुनिया में तो चर्चा हो रही है। लेकिन भारत की संसद में नहीं। यह चर्चा न हो पाने के लिए जिम्मेदार है क्षुद्र राजनीति और एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की प्रवृत्ति। संसद के तीन दिन बर्बाद हो गए, लेकिन मणिपुर पर चर्चा शुरू नहीं हो सकी। इसलिए नहीं हो सकी, क्योंकि इस पर सहमति नहीं बन पा रही है कि चर्चा किस नियम के तहत हो। क्या नियम विशेष पर चर्चा करने से मणिपुर के हालात यकायक शांत हो जाएंगे। विपक्ष केवल नियम विशेष पर चर्चा को लेकर ही नहीं अड़ा, बल्कि उसे यह भी स्वीकार नहीं कि गृह मंत्री चर्चा की शुरुआत करें। वह पहले प्रधानमंत्री का वक्तव्य चाहता है। यह जिद चर्चा से बचने का बहाना ही अधिक जान पड़ती है। क्योंकि एक तो प्रधानमंत्री मणिपुर की घटना पर पहले ही बोल चुके हैं और दूसरे, सत्तापक्ष की ओर से यह नहीं कहा गया कि वह आगे इस विषय पर कुछ नहीं कहने वाले। सत्तापक्ष की ओर से बार-बार यह कहा जा रहा है।
कि यदि चर्चा के लिए समय कम पड़ा और उसे बढ़ाने की आवश्यकता पड़ी तो यह काम किया जा सकता है। लेकिन विपक्ष ने ठान लिया है कि वही होना चाहिए, जो उसकी ओर से कहा जा रहा है। इससे यही लगता है कि उसकी दिलचस्पी देश के समक्ष यह जताने में है कि सरकार मणिपुर पर चर्चा करने से बच रही है। शायद इसीलिए विपक्षी नेता संसद परिसर में प्रदर्शन करने और दोनों सदनों में नारेबाजी को अतिरिक्त प्राथमिकता दे रहे हैं। जब किसी की प्राथमिकता संसद के भीतर-बाहर नारेबाजी करना और हंगामा मचाना हो तो फिर यह सहज ही समझा जा सकता है कि उसकी रुचि चर्चा करने में कम ही है। यह सही है कि सदन चलाना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन वह इसमें तभी सफल हो सकती है, जब विपक्ष बीच का रास्ता निकालने के लिए तैयार हो। यदि दोनों पक्ष चाहें तो मतभेदों के बीच ऐसा कोई रास्ता निकल सकता है, जिससे मणिपुर को लेकर संसद में सार्थक चर्चा हो सकती है।
निःसंदेह ऐसा कोई रास्ता निकालने में जितनी गंभीरता सत्तापक्ष को दिखानी चाहिए। उतनी ही विपक्ष को भी। वैसे बीते कुछ दिनों में संसद का जैसा माहौल दिखा है, उससे यह कहना कठिन है कि मणिपुर को लेकर कोई ठोस चर्चा हो सकेगी। यदि वह होती भी है तो लगता नहीं कि वह स्तरीय और देश को आश्वस्त करने वाली होगी, क्योंकि सभी राजनीतिक रोटियां सेंकने के फेर में दिख रहे हैं। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप लगाने में चाहे जितनी ऊर्जा खपाएं, वे देश को निराश करने का ही काम कर रहे हैं। वास्तव में संसद में गंभीरता जताने के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह किसी तमाशे से कम नहीं। यह तमाशा देश को लज्जित करने वाला है।
