केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास आठवले ने लोकसभा में इसी सप्ताह जानकारी दी कि बीते पांच वर्षों में सीवर एवं सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए 399 लोगों की जान गई। उन्होंने यह भी बताया, कि देश के 766 जिलों में से 530 ने यह बताया है कि वे मैला ढोने की प्रथा से मुक्त हो चुके हैं। इसका मतलब है कि अन्य जिलों में अभी भी मैला ढोने की प्रथा जारी है। यह तब है, जब संसद द्वारा 2013 में पारित एक प्रस्ताव के तहत दिसंबर 2014 में एक कानून बन चुका है। इसके अनुसार हाथ से मैला उठाना और बिना पर्याप्त सुरक्षा उपायों के सीवर या सेप्टिक टैंक के अंदर जाना प्रतिबंधित है। सेप्टिक टैंक की सफाई में 21 दिशानिर्देशों का पालन करना आवश्यक होता है। इसमें विशेष सूट, आक्सीजन सिलेंडर, सेफ्टी बेल्ट आदि सुरक्षा उपकरण आवश्यक हैं।
सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों की बदबू हमें विचलित कर देती है। लेकिन हमारे जैसे कुछ लोग अस्वच्छ एवं शुष्क शौचालयों से मानव अपशिष्ट को झाड़ू से हटाते हैं। आखिर इससे अधिक अमानवीय क्या हो सकता है। कि जो लोग शुष्क शौचालयों की सफाई में शामिल हैं, उन्हें मानव मल को ले जाकर दूरदराज के स्थानों पर निपटान करना होता है। यह समझा जाना चाहिए कि शुष्क शौचालयों की सफाई प्रक्रिया अपमानजनक है।नवीनतम आंकड़ों के अनुसार देश भर में कुल 11,635 लोग अभी भी मैला ढोने का काम करते हैं। छोटे-बड़े शहरों के आवासीय एवं कार्यालय परिसरों के सीवर एवं सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए ठेकेदारों द्वारा 400-500 रुपये देकर अकुशल सफाई कर्मचारियों को बेल्ट, मास्क, टार्च और अन्य बचाव उपकरणों के बिना ही 10-15 मीटर गहरे टैंकों में उतार दिया जाता है।
उचित रोजगार के अभाव में सफाईकर्मी जोखिम उठाने को बाध्य होते हैं। जहां कई बार अमोनिया, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड आदि जहरीली गैसों से उनकी मौत हो जाती है। इस तरह की घटनाएं आए दिन होती हैं। ये घटनाएं स्वच्छ भारत अभियान पर सवाल खड़े करती हैं। सफाईकर्मी जब किसी सीवर लाइन या सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए उसमें उतरते हैं तो वहां उन्हें जहरीली गैसों से जलन, सांस, उल्टी, सिरदर्द, संक्रमण आदि का सामना करना पड़ता है। ऐसे भी मामले प्रकाश में आए हैं, जब दुर्गंध के कारण किसी सफाईकर्मी ने असमर्थता जाहिर की तो उसे शराब का सेवन कराकर सफाई के लिए उतारा गया। हम अमृतकाल पर अनेक कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। हमने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर स्वच्छता अभियान के कई कार्यक्रम आयोजित किए। बापू ने अपने अंतिम दिनों में अपना अधिकांश समय वाल्मीकि बस्ती में गुजारा। साबरमती आश्रमवासियों के लिए उनकी शर्त थी कि सभी अपना शौचालय स्वयं साफ करेंगे। इसके उल्लंघन के लिए उन्होंने कस्तूरबा और आचार्य कृपलानी तक को झिड़का था।
बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का मानना था कि भारत में कोई अपने काम की वजह से सफाईकर्मी नहीं है, बल्कि जन्म के चलते है। हाथ से मैला साफ करना या मल से भरी टोकरी उठाने का काम सामंती उत्पीड़न की निशानी है। जातिगत व्यवस्था की मजबूत पकड़ से बंधे ये बेबस लोग समाज में आज भी तिरस्कृत हैं। शायद इसीलिए उनकी मौतों पर सभ्य समाज में न तो कोई तीखी प्रतिक्रिया होती है और न ही राष्ट्रीय बहस छिड़ती है। आखिर ऐसी घटनाएं लोगों की संवेदना को क्यों नहीं झकझोरतीं। सीवर के अंदर सफाई कर्मचारी की मौतें एक तरह से हत्या हैं। गांधी जी ने इस पर अपनी भावनाएं प्रकट की थीं। उन्होंने लिखा था, ‘अगर मुझे इस जन्म में मुक्ति नहीं मिलती है। तो मैं अगले जन्म में सफाईकर्मी के रूप में पैदा होना पसंद करूंगा।
पिछले लगभग दो सौ वर्षों का इतिहास गवाह है कि शहरीकरण के साथ मैला ढोने की प्रथा का भी विस्तार हुआ। अंग्रेजों के शासनकाल में इसे संस्थागत रूप दिया गया। सेना की छावनियों और नगर पालिकाओं में मैला ढोने वालों के लिए बाकायदा पद निर्मित किए गए। वर्तमान सरकार पुराने कानूनों को बदलने की मुहिम चला रही है, लेकिन सही अर्थों में उसे सफल तभी माना जाएगा, जब मैला ढोने की कलंक रूपी प्रथा से देश को मुक्ति मिलेगी। स्वच्छता अभियान को सफल बनाना है तो सबसे पहले इस कलंक से मुक्त होना होगा। यहां एक ऐतिहासिक प्रसंग का जिक्र भी आवश्यक है। परंपरागत कलाओं-पेशों पर हुए हमलों, कृषि लगान की भयानक लूट, अकाल आदि ने लाखों लोगों विशेषकर दलितों को मल की साफ-सफाई के अमानवीय काम को करने के लिए मजबूर किया। देश के विभाजन के समय और उसके बाद शेष जातियों के हिंदुओं को तो पाकिस्तान ने भारत जाने दिया, लेकिन सफाई कर्मचारियों को रख लिया।
उन्हें भारत नहीं आने दिया गया। कारण यह था कि वे चले जाएंगे तो साफ-सफाई कौन करेगा। भारत सरकार को पाकिस्तान से आने वाले हिंदुओं की तो चिंता थी, लेकिन वहां के उन हिंदुओं की नहीं, जो सफाई का काम करते थे। इससे क्षुब्ध होकर आंबेडकर जी ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर चिंता जताई कि पाकिस्तान ने दलितों को अपने यहां जिस तरह रहने को बाध्य किया है, उस पर भारत सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए, लेकिन उनकी चिंता का समाधान नहीं हो पाया। पाकिस्तान में आज भी नियम है कि सफाईकर्मी की भर्ती में केवल हिंदू और ईसाई ही शामिल हो सकते हैं। विडंबना यह है कि भारत में भी आजादी के इतने साल बीत जाने और विकास के तमाम दावों के बावजूद यह कुप्रथा जारी है। यह कुप्रथा सामंती सोच को बयान करती है। भारत के साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में भी यह कुप्रथा अलग-अलग ढंग से मौजूद है और कमोबेश हर जगह इसका आधार जाति है।
