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अर्थ के इस युग में हक और सम्मान की बात करती महिला कर्मचारी
  • 151019049 - VISHAL RAWAT 0



कितनी आवश्यक है पीरियड लीव भारत में माहवारी पर बात कम की जाती है अक्सर चर्चा महिलाओं और लड़कियों को माहवारी से जुड़े किफायती उत्पाद देने और जागरूक करने से शुरू होती है और इसी पर खत्म होती है। लेकिन आज महिलाओं की परिस्थितियां बदल गई हैं उन्हें घर और बाहर दोनों ही क्षेत्रों में कार्य करने हैं अतःसिर्फ इतने से ही काम नहीं होगा और भी बहुत कुछ करने और कहने की जरूरत है।महिलाएं और पुरुष बराबर हैं।पर हूबहू एक जैसे नहीं’.......प्रकृति ने जन्मजात अंतर रखते हुए हार्मोन के स्तर से बदलाव कर दिया है। जब एक लड़की अपने उम्र के आठवे से लेकर 12 वर्ष में पहुंचती है तो शायद एक असहज दर्द भरे उस एहसास से गुजरना पड़ता है पुरुष और महिला होने के प्राकृतिक अंतर से जुड़ना पड़ता है। वहां हर मां की जिम्‍मेदारी होती है कि वो अपनी बेटी के शरीर में हो रहे इस बड़े बदलाव के लिए उसे मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार करे।मासिक चक्र शुरू होने पर अक्‍सर पेट में तेज दर्द और कई तरह की परेशानियां आती हैं जिन्‍हें देखकर लड़कियां डर जाती हैं।ऐसे में अपनी बेटी को समझाएं और उसकी हिम्‍म्‍मत बढ़ाएं कि यह प्रकृति का एक नियम है जिसके लिए उसे तैयार रहना है। अक्सर पढ़े लिखे समाज की माताएं उसकी डायट में भी ऐसी चीजों को शामिल कर देती है जिनमें आयरन और फोलिक एसिड भरपूर मात्रा में हों दूध फल और पौष्टिक आहार बहुत जरूरी हो जाता है। ये सब पोषक तत्‍व आगे चलकर भी सेहतमंद रहने और हार्मोनल संतुलन के लिए फायदेमंद होते हैं। हालांकि गांव और कस्बों के स्तर पर अभी भी यह लुका छुपी का खेल ही है,माताएं ही जागरूक नहीं है।पीरियड के शुरुआत से ही लेकर जब लड़कियां अपने स्कूल में जाती हैं तो उन्हें बहुत सी तकलीफ , दर्द और असहजता के साथ अपनी कक्षाओं को सुचारू रूप से चलाना पड़ता है। माना कि टेक्नोलॉजी के युग में विभिन्न प्रकार की कंपनियों ने बहुत ही अच्छी क्वालिटी के सेनेटरी पैड उपलब्ध करा दी हैं। आज लड़कियों और महिलाओं को पहले के जमाने के कपड़ों को बार-बार बदलने, धोने और सुखाने से निजात मिल गई है। आधुनिक सेनेटरी पैड के सहारे दिनचर्या को सहजता से चलाया जा सकता है साफ सफाई और स्वास्थ्य के प्रति सजगता भी बनी रहती है।फिर भी महिलाओं के लिए माहवारी का पहला दिन असहज होता है और इस स्थिति में वे काम करने की हालत में नहीं होती हैं पर 12 वर्ष की आयु से शुरू किया गया यह दर्द ,पीड़ा और कुछ अलग दिन होने का एहसास, समाज में अपने आप को स्थापित करने, नौकरी करने तथा परिस्थितियों से लड़ने में कभी भी बाधा नहीं बना। बच्चियों ने परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित कर समुद्र की गहराइयों ,आकाश की ऊंचाइयों ,सेना, पुलिस ,डॉक्टर इंजीनियर, शिक्षक सभी वर्गों में अपना परचम लहराया है।आजादी के पहले का पता नहीं ...पर हम आजादी के 75 वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं आज भी यदि महिलाओं को पीरियड की समस्याओं के लिए दर-दर भटकना पड़े तो वाकई हास्यास्पद है।आज की टेक्नोलॉजी के युग में यदि विभिन्न प्राइवेट कंपनियां पीरियड लीव का लॉलीपॉप महिलाओं को दें तो वाकई हास्यास्पद लगता है। प्राइवेट कंपनियों मैं महिला ज्यादा से ज्यादा काम करें इसका प्रलोभन भी हो सकता है। अब इस छुट्टी की मांग सरकारी क्षेत्र में कार्यरत महिलाएं भी करने लगी हैं।कई प्राइवेट कंपनियों नेऑप्शनल लीव के रूप में दो दिन की पैड लीव महिला कर्मचारियों को दी है और महिला कर्मचारी जरूरी समझें तो इसका इस्तेमाल कर सकती हैं.भारत में जोमैटो ने अपनी महिला कर्मचारियों को साल में दस दिन की "पीडियस लीव्स" देने का फैसला किया है ,वैसे कल्चरल मशीनन और गोजूप जैसी कंपनियों में पहले से ही महिलाओं को पीरियड्स के पहले दिन छुट्टी लेने की अनुमति है तो सोचने का विषय है कि यदि यह छुट्टी इतनी आवश्यक थी तो विभिन्न राज्य सरकारों ने इसे प्रेगनेंसी लीव, चाइल्ड केयर लीव की तरह क्यों नहीं दिया?प्राइवेट कंपनियों में दफ्तर में ऐसा माहौल बनाना बहुत अच्छी पहल है जहां लोग इसे लेकर शर्माएं ना, इसके बारे में बात कर सकें।लेकिन यह समय ही बताएगा कि जोमैटो की नीति एक सकारात्मक कदम है या नहीं????? और विभिन्न महिला कर्मचारियों की परिस्थितियों कार्यस्थल की सुविधाओं में कितना अंतर है।उत्तर प्रदेश स्तर पर जहां महिलाओं को अक्सर कार्यालयों में ड्रेस कोड में बांधने के बात की जाती है, वहां इस तरह की छुट्टी देकर उन्हें किस कटघरे में खड़ा किया जाएगा उसका पता नहीं??? लेकिन विभिन्न महिला संगठनों द्वारा पीरियड की मांग वर्तमान समय में एक महती आवश्यकता है।हालाकि जापान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और जाम्बिया जैसे देशों में "पीरियड लीव्स" दी जाती हैं पर अमेरिका और चीन में नहीं।पीरियड लीव देने से एक संभावना यह भी बनती है कि इस कदम की वजह से महिलाएं कार्यस्थल पर अकेली पड़ सकती हैं। अवसर की समानता की बात करने वाली आधुनिक युग की महिलाएं पीरियड्स में छुट्टी मांगने से कार्यस्थल पर बराबरी के लिए लड़ने वाली महिलाओं के संघर्ष कमजोर कर सकती हैं वहीं पुरुष जो समान वेतन की बात करने पर अक्सर बैंकों की लंबी कतारों में महिलाओं को लाइन से आने के बाद करते हैं, अक्सर बस में खड़ी हुई महिला के लिए सीट नहीं छोड़ते क्योंकि वहां बराबरी की बात है तो फिर विशेष छुट्टी मिलने पर क्या वह फब्तियां कसने से बाज आएंगे? क्या वाकई हम महिलाओं को कार्यस्थल में समानता और सम्मान दिला पाएंगे,कार्यस्थल पर पीरियड्स में छुट्टी देने के कदम से महिला कर्मचारी क्या एक साथ छुट्टी पर जाने, या कब किसे छुट्टी पर जाना है यह तय कर पाना मुश्किल होगा और इस तरह कार्य स्थल पर एक अनियमितता पैदा हो सकती है की कब किसे छुट्टी दी जाए????? जिन दफ्तरों में कई महिलाएं एक साथ काम करती हैं वहां क्या काम सुचारु रुप से चल पाएगा,आज देश में बहुत बड़े असंगठित क्षेत्र की कर्मचारी और मजदूर महिलाये काम करती है इन महिलाओं को बच्चा होने पर छह महीने की छुट्टी, यौन शोषण से सुरक्षा,बच्चों की परवरिश का अवकाश और ऐसी दूसरी नीतियों का फायदा भी नहीं मिल पाता है। फिर भी वह बराबरी से पुरुषों के साथ काम कर रही हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को तो पता भी नहीं है कि उनके अधिकार क्या हैं? इस अर्थ तंत्र में उन्हें सिर्फ मेहनत करके अपना परिवार पालना है यही काफी है। क्या पूरे देश में एक साथ पीरियड लीव दी जा सकती है,माना की हमें माहवारी से जुड़े मिथक को दूर करना होगा ,इसके बारे में एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया की तरह बात करनी होगी और योजना और नीतियां बनाते समय ऐसी बातों का ध्यान रखना होगा की महिलाओं को कुछ सुविधाएं मिल सकें। स्कूल और कॉलेजों में बेटियों को और कार्यस्थल में कार्यरत महिला कर्मचारियों को समय-समय पर जागरूक करना होगा और यह बताना होगा कि महावारी एक सामान्य प्रक्रिया है। फिर इसे लेकर इतनी असहजता और हाय तौबा क्यों, जब बच्चियों का स्कूल और बेटियों का कॉलेज बंद नहीं तो फिर कार्य करने वाली महिलाओं को ही अवकाश की आवश्यकता क्यों??माहवारी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। महीने के ये मुश्किल भरे चार से पांच दिन महिलाओं के लिए शारीरिक एवं मानसिक रूप से थका देने वाले होते हैं, लेकिन क्या थकावट और दर्द इतना असहनीय होता है कि इसके लिए बाकायदा छुट्टी का बंदोबस्त किया जाए।आखिर कितनी जरूरी है महिलाओं के लिए पीरियड की छुट्टी.?? माना की जिन महिलाओं को अमेनेरिया, प्रीमेंस्ट्रुअल सिंड्रोम, पीसीओडी जैसी पीरियड-संबंधी बीमारियां होती हैं, उनके लिए महीने के पांच दिन बाकियों से कहीं तकलीफ भरे होते हैं पर डॉक्टर की सलाह पर कुछ दवाइयां लेकर असहनीय दर्द से निजात पाया जा सकता है। इन विशेष परेशानियों में महिलाओं को आराम करने की छूट देने का समर्थन करना चाहिए । निश्चित रूप से ऐसे मौकों पर पीरियड लीव मददगार साबित हो सकती है। आज महिलाओं के पास विकल्प नहीं होने के कारण दर्द झेलना पड़ जाता है। पर यदि इसे नॉर्मल प्राकृतिक प्रक्रिया माना जाए तो कुछ भी असहज नहीं है जब बच्चियां इस दौर से गुजर कर अपनी पढ़ाई लिखाई और अन्य कार्य को कर सकती हैं तो फिर कार्यरत महिलाएं क्यों नहीं,पहले पीरियड, फिर प्रेग्नेंसी, औरतों के बारे में ये मिथ पहले से ही है कि वो पुरुषों से कम प्रोडक्टिव होती हैं, ऐसे में प्रेग्नेंसी और पीरियड.. पुरुषवादी मानसिकता वाले समाज को एक नया बहाना दे देते हैं, कुछ भी करके औरतों के काम को कम आंकने का..............पीरियड में दर्द होने पर लीव लेना समस्या क्यों है। जब बुखार या चोट लगने पर लीव लेना समस्या नहीं हैं सामान्य अवकाश को सभी के लिए बढ़ाया जा सकता है और आवश्यकता अनुसार महिलाएं अपने कार्यस्थल की सुविधा अनुसार उसे ले सकते हैं।फिजिकल परेशानिया महिलाओं के साथ रहेगी और इनके साथ ही उन्हें नौकरी इत्यादि करनी होगी ।इसके लिए महिलाएं पहले से ही मानसिक रूप से और शारीरिक रूप से तैयार रहती हैं फिर आज छुट्टी की मांग क्या काम से जी चुराना है या अपनी क्षमताओं को कम आंकना।जो महिला पीरियड के दिनों में भी अपने घर के सभी कामों अपने बच्चों की परवरिश जैसे सभी कामों को करती है, घर में घंटों का अनपेड लेबर करती है, वह महिला शारीरिक रूप से सक्षम है अपने कार्यस्थल पर भी इस दौरान कार्य करने के लिए...एक तरफ हम बात महिला सशक्तिकरण की करते हैं एक तरफ हम बताते हैं कि महिलाएं किसी भी मुद्दे पर पुरुष की बराबरी कर सकती हैं माना कि शारीरिक रूप से हार्मोन रूप से कुछ ज्यादा कष्ट महिलाओं को सहना पड़ता है कुछ महिलाओं को इस दौरान कुछ ज्यादा ही दर्द और तकलीफ को झेलना पड़ता है कई महिलाएं जोकि शिक्षक के रूप में दूरदराज के गांवों में तैनात हैं उन्हें इस दौरान कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि उन्हें लंबा सफर सार्वजनिक संसाधनों से तय करना पड़ता है और विद्यालय के आस पास भी कोई टॉयलेट उपलब्ध नहीं होती।कई दफ्तरों में सामूहिक टॉयलेट होने की वजह से महिलाओं को इस दौरान दिक्कत हो सकती है।आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि यदि हम कार्यस्थल की दिक्कतों को दूर नहीं कर पा रहे हैं तो आजादी के 75 वर्ष बाद किस बात का पर्व मना रहे हैं।यदि आज भी गांव के दूर-दराज के विद्यालयों में काम करने वाली महिलाओं को टॉयलेट नहीं उपलब्ध करा पा रहे हैं तो विकास के किस कीर्तिमान की बात की जा रही है???? सक्षम अधिकारी और सरकारें विचार करें.…निश्चित रूप से हम यह सब उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। आज भी बहुत से सरकारी सेवाएं और बहुत से असंगठित क्षेत्र ऐसे हैं जहां अक्सर महिलाओं को पीरियड के दौरान शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है क्योंकि हम कागजी बातें तो करते हैं कि हर गांव और मोहल्ले में टॉयलेट है पर बड़े-बड़े शहरों पर भी महिलाओं के लिए इस दौरान टॉयलेट और पैड चेंज करने की व्यवस्था नहीं हो पाती अतः आज के समय की माहिती आवश्यकताएं हैं कि विषम परिस्थितियों में काम करने वाली महिलाओं को या तो मूलभूत सुविधाएं दी जाए या सुविधाओं के अभाव में इस असहजता पूर्ण पीरियड के दिनों का स्वैच्छिक अवकाश देने की छूट दी जाएं.. क्योंकि समानता की बात करने वाले हम आज उसी समाज में रहते हैं जहां हर दीवाल की आड़ में या सड़कों के किनारे अक्सर पुरुष टॉयलेट खुले मिलेंगे पर महिला घर से निकल कर वापस घर में आकर ही.. अतःआज महिला कर्मचारी के रूप में कार्यरत महिलाएं हक के साथ सम्मान चाहती हैं फिर वह मूलभूत आवश्यकता के रूप में एक अदद टॉयलेट हो या पीरियड लीव। दोनों में से एक को पाना सम्मान और हक की लड़ाई।

रीना त्रिपाठी
राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ


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