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नवाज का 47वां बर्थ-डे
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बॉलीवुड एक्टर नवाजुद्दीन सिद्दीकी आज अपना 47वां जन्मदिन मना रहे हैं। 19 मई, 1974 को उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे बुढ़ाना में जन्मे नवाजुद्दीन सिद्दीकी की शक्ल-सूरत किसी भी आम भारतीय जैसी है, लेकिन अदाकारी का हुनर लाजवाब है। तकरीबन 15 साल के संघर्ष के बाद नवाजुद्दीन बॉलीवुड में अपनी पहचान बना पाए। एक जमाने में वॉचमैन रह चुके नवाज आज भी वक्त निकालकर अपने गांव जाते हैं और खेती-बाड़ी भी करते हैं। नवाज ने करियर की शुरुआत 1999 में आई फिल्म 'सरफरोश' से की। हालांकि इसमें उनका छोटा सा रोल था। इस शुरुआत के बारे में किसी को खबर तक नहीं हुई। साल 2012 तक नवाज ने कई छोटी-बड़ी फिल्मों में काम किया, लेकिन उन्हें कोई खास पहचान नहीं मिली। फिर अनुराग कश्यप उन्हें फैजल बनाकर 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में लाए और फैजल के रोल ने उन्हें घर-घर में पॉपुलर बना दिया। अब जबकि नवाज इंडस्ट्री के टॉप एक्टर्स में शुमार हो चुके हैं, तो लोग यह सोचकर हैरान होते हैं कि आखिर नवाज अपने हर रोल में कैसे ढल जाते हैं? जब इस बारे में एक इंटरव्यू में नवाज से पूछा गया था, तो उन्होंने कहा- मैं अपने गांव चला जाता हूं और वहां जाकर अपने खेतों की देखभाल करता हूं। कुछ दिन वहां खेती करते हुए बिताता हूं। नवाजुद्दीन के मुताबिक, ऐसा करने से उनके मन को सुकून मिलता है और इसके बाद वो नए किरदार की तैयारी में जुट जाते हैं। नवाजुद्दीन के मुताबिक, हम सात भाई और दो बहनें हैं। पिता किसान थे। घर में फिल्म का नाम लेना भी अच्छा नहीं समझा जाता था। बल्कि यूं कहें कि ज़िंदगी की लड़ाई इतनी बड़ी रही कि सिनेमा के बारे में सोचने की किसी को फुरसत नहीं थी। हां, जैसी हर मां-बाप की आरज़ू होती है, पापा चाहते थे कि मैं अच्छी तरह पढ़-लिख जाऊं। वे ये तो नहीं समझते थे कि कौन-सी पढ़ाई करनी ठीक होगी, लेकिन हुनरमंद होने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते थे। किसी तरह धक्के खाते हुए हरिद्वार की गुरुकुल कांगड़ी यूनिवर्सिटी से साइंस में ग्रैजुएशन किया। फिर भी जॉब नहीं मिली तो दो साल इधर-उधर भटकता रहा। बड़ौदा की एक पेट्रोकेमिकल कंपनी थी, उसमें डेढ़ साल काम किया। वह नौकरी ख़तरनाक थी। तमाम तरह के केमिकल की टेस्टिंग करनी पड़ती थी। फिर जॉब छोड़ दी, दिल्ली चला आया और नई नौकरी तलाश करने लगा। वॉचमैन की नौकरी भी की। काम तो मिला नहीं, लेकिन एक दिन किसी दोस्त के साथ नाटक देखने चला गया। प्ले देखकर दिल खुश हो गया। इसके बाद कई नाटक देखे। धीरे-धीरे रंगमंच का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा। खुद से कहा- यार! यही वो चीज है, जो मैं करना चाहता हूं। कुछ अरसे बाद एक ग्रुप ज्वाइन कर लिया- साक्षी, सौरभ शुक्ला वगैरह उससे जुड़े थे। तो ऐसे नाटकों से जिंदगी जुड़ गई, लेकिन थिएटर में पैसे मिलते नहीं हैं। रोजमर्रा का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। शाम की रोटी का इंतजाम हो सके, इसकी खातिर शाहदरा में वॉचमैन की नौकरी करने लगा।"

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