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प्रशासन की अनदेखी से समाप्त हो गई जीवन देने वाली नदियों की जिंदगी
  • 151030950 - SURENDRA SINGH 0



सम्भल :  संभल जिले में नदियों के अस्तित्व पर तीन दशकों से संकट के बादल मंडरा रहे हैं। राजस्व विभाग की लापरवाही के चलते सूखती नदियों और विलुप्त होते तालाबों को पाटा जा रहा है। अधिकांश स्थानों पर अनाधिकृत रूप से कब्जे किए जा रहे हैं। सूखी जमीन पर कहीं खेती हो रही है तो कहीं मकान बन गए हैं। लगातार गिरते जल स्तर और खत्म होते जल स्रोतों से आने वाली पीढ़ियों के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो रहा है।
यूं तो नदियों की निगरानी के लिए राज्य, केंद्र और एनजीटी की ओर से तमाम प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन हालात यह है कि नदियां प्रदूषण की मार झेल रहीं हैं। संभल तहसील से गुजरने वाली सोत नदी हो या फिर गुन्नौर तहसील से होकर गुजरने वाली महावा। महावा नदी में गजरौला की औद्योगिक इकाइयों के प्लांटों से निकलने वाले केमिकल युक्त पानी को छोड़ा गया, जिससे महावा नदी प्रदूषित हो गई। भूगर्भ तक इसका असर हुआ था।

ग्रामीणों की माने तो आसपास के स्थानों पर हैंडपंप, नल पीला और बदबूदार पानी उगलने लगे थे। लेकिन अब इसका अस्तित्व में खतरे में है। जगह-जगह कब्जे हो गए हैं और नदी सिकुड़ गई है। लोगों ने खेती करना शुरू कर दिया है। सोत नदी की भी हालत ऐसी ही थी, हालांकि अमर उजाला की मुहिम के बाद इसको पुनर्जीवित किया गया है। वहीं संभल जिले के गुमसानी से अपने उद्गम स्थल से ही आरिल नदी सूख गई है। नदी में लोगों ने गोबर के ढेर लगा दिए हैं। सूखी नदियों में लोगों ने फसल उगानी शुरू कर दी है तो कहीं-कहीं मकान भी बना लिए हैं।
...इस तरह विलुप्त होती गई महावा नदी
अमरोहा जिले में गजरौला के पिपरिया घाट से गंगा के मुहाने से निकली महावा नदी करीब डेढ़ सौ साल से अधिक पुरानी है। यह अंग्रेजी हुकूमत में अमरोहा से संभल होते हुए करीब डेढ़ सौ किमी का सफर तय करती हुई हजारों किसानों की जमीन को जीवनदान देती हुई बदायूं के कछला घाट पर पहुंचकर फिर गंगा में समा गई।

गंगा के इस मुहाने को ही महावा कहा गया। लोगों का कहना है कि जब क्षेत्र में बाढ़ के हालात बार बार बनने लगे तो उद्गम स्थल पर ही लोगों ने महावा के मुहाने को बंद कर दिया। जिससे पानी घट गया और नदी सूखने लगी। लेकिन तीन दशक पहले अमरोहा जिले के गजरौला स्थित औद्योगिक इकाइयों का दूषित पानी छोड़ा जाने लगा। इससे इसका पानी काला हो गया और क्षेत्र के आसपास का भूगर्भ जल भी दूषित हो गया। काले दूषित पानी पर रोक लगाने के लिए शासन में पैरवी की गई तो काफी हद तक औद्योगिक इकाइयों का दूषित जल रोका भी गया। लेकिन इसके बाद यह नदी सूखती ही चली गई। यही वह समय था कि जब खेत स्वामियों ने अपने खेतों को बढ़ाकर नदी के भूभाग पर कब्जा कर लिया। इस दौरान भू माफियाओं की नजर पड़ी। दबंगों ने अपने मनमाफिक तरीके से नदी क्षेत्र पर कब्जा करके अपने खेत बनाकर खेती किसानी शुरू कर दी।
सोत नदी को मिला खोया अस्तित्व, आरिल और छोइया नदी का वजूद समाप्त
जिले में कलकल बहने वाली आरिल और छोइया नदी की मौजूदा हालात दयनीय है। नदियां सूख गई हैं और जगह-जगह कब्जे हो गए हैं। नदी की जमीन पर खेती हो रही है। रचैटा गांव के निवासी सोमपाल सिंह ने कहा कि जब तक देश की सभी नदियां कनेक्ट नहीं की जाएंगी, तब तक नदियों में वर्ष भर पानी की 

उपलब्धता नहीं रह सकेगी। पानी की उपलब्धता के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव रखा था लेकिन इस पर अमल नहीं हो सका।

अगर सरकार इस और ध्यान देती है तो प्रकृति की रक्षा होगी और पानी भी बना रहेगा। वहीं ओबरी के किसान कुलदीप सिंह ने कहा कि नदी में जल के रहते लोग सिंघाड़ा, भसीडा की जलीय खेती के व्यवसाय से जुड़े थे। नदियों के लुप्त हो जाने से तमाम लोग बेरोजगार हो गए। अगर नदियों की धारा अविरल बही तो फिर लोगों को रोजगार के साधन प्राप्त हो जाएंगी।

रेत के कारोबार ने भी नदियों को नुकसान पहुंचाया
सरकार भले ही बदले लेकिन नदियों, तालाबों से रेत निकालने और खेतों को बंजर बनाने का खेल बेरोकटोक जारी रहता है। फिर चाहे सफेद रेत का काला कारोबार हो या खेतों को बंजर बनाने का धंधा। यूं तो खनन के नियम-कानून दिनों दिन सख्त हो रहे हैं। शासन प्रशासन चुस्त होने का दावा कर रहा है पर सफेद रेत और मिट्टी का खनन का कारोबार बढ़ता ही जा रहा है। सफेद रेत के काले कारोबार की बानगी असमोली के गांवों में देखी जा सकती है।


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