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आदिवासियों के बलिदान को भूलते जा रहे इतिहासकार-मानस
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फ़ास्ट न्यूज इंडिया प्रदेश संवाददाता दीपक कुमार शर्मा 151018477 पश्चिम बंगाल, मिदनापुर :पश्चिम मिदनापुर जिला प्रशासन की अगुवाई में मिदनापुर जिला परिषद के प्रद्युत स्मृति सदन में दो दिवसीय हुल दिवस उध्यापन 2021 की शुरुआत की गई।इस अवसर पर पश्चिम मिदनापुर की जिलाधिकारी डॉ रश्मि कमल, पुलिस सुपर दिनेश कुमार, पश्चिम बंगाल के जल संसाधन मंत्री मानस भुंइया, विधायक अजित माइती, उतरा सिंह हाजरा, के अलावा ढेरों मंत्री, विधायक, और गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।इसके अलावा आदिवासियो ने गीत, नृत्य और अपनी लोक कलाओं से सबको विस्मित कर दिया।जिलाधिकारी ने कहा कि आदिवासियों के चतुर्दिक विकास के लिए हर संभव प्रयास किया जा रहा है, उन्हें मुख्य धारा में जोड़ने की कोशिश की जा रही है।पुलिस सुपर दिनेश कुमार ने कहा कि पुलिस प्रशासन से हर संभव सहायता की जा रही है।सिविक पुलिस में उनकी नियुक्ति की जा रही है।मंत्री मानस भुइया ने कहा कि आज के इतिहासकारो ने संथाल ,मुंडा विद्रोह को एक सीमित दायरे में बांध कर रख दिया है।कितने आश्चर्य की बात है कि सिद्धू, कानू, विरसा मुंडा जैसे शहीदों को, जिन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पहले ही स्वतंत्रता आंदोलन का बिगुल बजा दिया था, पाठ्यक्रम से दूर होते जा रहे हैं,लेकिन पश्चिम बंगाल की ममता सरकार इनसे कभी भी दूर नहीं हो सकती।ममता सरकार आदिवासियों के संपूर्ण विकास के लिए कटिबद्ध है।सरकार खास जगहों को चिन्हित कर उन्हें पट्टे पर देने के लिए रोडमैप तैयार कर रही है।उन्होंने आदिवासियों के गौरवशाली इतिहास को भी बताने की कोशिश की। दरअसल इस गौरवशाली इतिहास के गर्त में जायेंगे हो पायेंगे कि हँसिये पर जा रहे आदिवासियों का इतिहास त्याग, बलिदान, आत्मसम्मान की मिसाल है।जिस दिन झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाया था, उस दिन को 'हूल क्रांति दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी थी,लेकिन अपने आत्मसम्मान के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया था।30 जून, 1855 को सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में मौजूदा साहेबगंज जिले के भगनाडीह गांव से विद्रोह शुरू हुआ था। इस मौके पर सिद्धू ने नारा दिया था, 'करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो' मौजूदा संथाल परगना का इलाका पहाड़ियों एवं जंगलों से घिरा क्षेत्र था। इस इलाके में रहने वाले पहाड़िया,मुंडा, संथाल और अन्य आदिवासी खेती-बाड़ी करके गुजर बसर करते थे और जमीन का किसी को राजस्व नहीं देते थे,लेकिन पैसाखोर ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व बढ़ाने के मकसद से जमींदार की फौज तैयार की जो पहाड़िया,मुंडा, संथाल और अन्य निवासियों से जबरन लगान वसूलने लगे। लगान देने के लिए उनलोगों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता और साहूकार के भी अत्याचार का सामना करना पड़ता था।जब अत्याचार की पराकाष्ठा हो गई, तब इनलोगों में असंतोष और बदले की भावना बलबती होते चली गई। सिद्धू, कान्हू,और उनके दो अन्य भाइयों चांद और भैरव ने इनके असंतोष को आंदोलन में बदल दिया। परिणाम स्वरूप 30 जून, 1855 को 400 गांवों के करीब 50 हजार आदिवासी भगनाडीह गांव पहुंचे और आंदोलन की शुरुआत हुई। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेजों ने, सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव- को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। जिस अधिकारी को इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने के लिए वहां भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी जिससे सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय पैदा हो गया था। आंदोलन का परिणाम बहुत ही भयानक रहा आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने इस इलाके में सेना भेज दी। करो या मरो की भावना के साथ आदिवासी मैदान में आ गए। आदिवासियों पर गोलियां बरसने लगीं।बेचारे आदिवासी कब तक अपने परम्पगत हथियारों से लड़ते।आग्नेयास्त्र होते हुए भी अंग्रेज आंदोलनकारियों को नियंत्रित नहीं कर पा रहे थे।हार कर मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने पुरस्कारों की भी घोषणा की थी। बहराइच में अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक 'एनल्स ऑफ रूलर बंगाल' में लिखा है, 'संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।' जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा,बाद में वीरगति को प्राप्त हो गया। इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दी,लेकिन सम्मान से कोई समझौता नहीं किया। सिद्धू और कान्हू अभी भी अंग्रेजों की पकड़ से दूर थे।डिवाइड एंड रूल सिद्धांत के तहत सिद्धू और कान्हू के करीबी साथियों को पैसे का लालच देकर तोड़ दिया और दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई। इस तरह सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव, ये चारों भाई सदा के लिए भारतीय इतिहास में अपना अमिट स्थान बना गए।कुछ इतिहासकार इसे आने वाले स्वतंत्रता संग्राम का बीज भी मानते हैं।जो भी हो30 जून के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता।संघर्ष और बलिदान के इस दिवस को पश्चिम बंगाल की ममता सरकार ने याद करते हुए स्थानीय आदिवासियों को सम्मानित भी किया।इस दिवस को राज्य के सभी आदिवासी बहुल जिलों जैसे झाड़ग्राम, नदिया, हूगली, बांकुरा, पुरुलिया, दिनाजपुर, पश्चिम मिदनापुर में आयोजित किया गया। पश्चिम बंगाल से स्टेट इंचार्ज दीपक शर्मा की रिपोर्ट।

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