कोना प्रथा:वैधव्य को कोना
- 151113047 - JAYLAL NAGAR
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राजस्थान के जयपुर जिले एक अंतर्गत (आनंद चौधरी). पति की मौत और उस पर 6 माह तक एक कोने में बैठने की प्रथा व्यथा। राजस्थान के सिरोही और जालोर जिलों में पति की मौत के बाद महिलाओं को ऐसी ही व्यथा से गुजरना पड़ता है। इन छह माह में विधवा के बच्चों या परिवार पर बड़ा संकट आ जाए तो भी वह कोने से हिल नहीं सकती। किसी पुरुष की छाया उस पर नहीं पड़नी चाहिए।
महिला जब तक उस कोने में रहती है, उसे अपने हाथ-पैर सहित शरीर को पूरा ढंककर रखना होगा। इन्हें जिंदगीभर एक ही रंग के कपड़ों में इसी तरह ढंककर ही रहना होगा। सूरज उगने से पहले अपने सारे काम निबटाने होंगे। उजाला होने के बाद फिर कोने में सिमटना होगा। बंदिशें उम्र मुताबिक बढ़ती जाती हैं। जवान पर ज्यादा बंदिशें हैं। दोनों जिलों में ऐसी 20 हजार से ज्यादा विधवाएं हैं।
घर के पिछवाड़े खंडहर बरामदे में ही चटख लाल रंग के कपड़ों में बैठी इस विधवा को एक कोना मिला है चार महीने गुजर चुके पति की मौत को, दो महीने और इसी कोने में रहना है। खुला बरामदा। कभी तपकर, कभी ओढ़कर, कभी भीगकर, कभी ठिठुर कर। 5 साल का बच्चा बीमार है। डॉक्टरों ने कैंसर के लक्षण बताए हैं। रामली 6 माह पूरे होने पर पीहर जाकर आएगी, तभी प्रथा पूरी होगी, तब तक बच्चा भगवान भरोसे।
सिरोही जिले के शंभुगढ़ गांव की कालीबाई (बदला हुआ नाम) के पति की डेढ़ माह पहले मौत हो गई। कालीबाई को एक कोना दे दिया गया। उसके तीन बच्चे हैं, जिन्हें बूढ़ी सास संभालती है। घर में और कोई नहीं। काली ही मजदूरी कर कमाती थी। काली को साढ़े चार माह इसी कोने में रहना होगा। पूरे जीवन इसी रंग में पूरी तरह ढंककर।
भास्कर का सवाल है; वैधव्य को कोना; पुरुष प्रधान समाज में ये प्रथा विधवा को दृढ़, संयमशील और शालीन बनाने के लिए शुरू की गई, मगर ये बहुत भयानक सजा है। वैधव्य वो कठिन काल है, जब महिला को सबके साथ और दिलासे की बहुत जरूरत है। उसे अकेला एक कोने में छोड़ देना कितना सामाजिक और कितना संवेदनशील?
सत्ता ध्यान दे- बहुत सी कुरीतियां सत्ता के दखल से ही बंद हुई हैं। दुखी विधवा को इस अकेलेपन से आजादी मिलनी चाहिए।
समाज समझे- 6 महीने की यह व्यवस्था कई परिवारों को बर्बाद कर चुकी है।
देखे राजस्थान से जयलाल नागर की रिपोर्ट 151113047